लव जिहाद, गौपूजा, गौटैक्स, नागरिक संशोधन कानून, मंदिर निर्माण, जातियों के आधार पर आर्थिक सहायता, जातिगत आरक्षण, एक ही जाति के लोगों का शीर्ष स्थानों पर कब्जा कर लेना साफ कर रहा है कि देश अब छोटेछोटे खानों में तेजी से बंट रहा है और उस विभाजन की लपटें घरों में भी पहुंच रही हैं.
इस विभाजनकारी सोच का नतीजा है कि लोग ऐसा पड़ोस घर के लिए चुनते हैं, जहां उन के जैसे लोग ही रहते हों. निरंकारी कालोनी, अंबेडकर ऐन्क्लेव, परशुराम नगर, जाकिर कालोनी, गुप्ता कोऔपरेटिव सोसायटी जैसे नामों से रिहायसी इलाकों में बुरी तरह जातिगत भेदभाव है. इन कालोनियों में दूसरों को आमतौर पर जगह ही नहीं दी जाती और कोई घुस जाए तो पासपड़ोस के लोग उस से संबंध नहीं रखते.
हिंदूमुसलिम भेदभाव तो पुराना और बहुचर्चित है पर अब कमा सकने वाले पिछड़े और दलित भी यदि ऊंचों की कालोनी में जाना चाहें तो उन्हें घर बंद मिलते हैं.
हाल यह है कि प्रौपर्टी ब्रोकर पहले ही पूछ लेता है या नाम, काम, पृष्ठभूमि से अंदाजा लगा लेता है कि खरीदार कौन से वर्ग, कौन से धर्म और कौन सी जाति से है और उसे वहीं जगह दिखाता है जहां उसी के जैसे लोग रहते हैं. अलग वर्गों के लोग भी उन्हीं इलाकों में रहने को जमा हो जाते हैं जहां उन के जैसे लोग रहते हैं.
देश के विभाजन की यह पहली लकीर होती है. दुनिया में जो भी लकीरें नकशों में बनी हैं उन के पीछे धर्म, जाति, भाषा, रंग आदि के कारण ही रहे हैं. बहुत से युद्ध इसी कारण हुए थे. द्वितीय विश्व युद्ध जो सब से संहारक युद्ध रहा है एडोल्फ हिटलर की जाति श्रेष्ठता के भाव के कारण ही लड़ा गया. हिटलर साबित करना चाहता था कि जरमन आर्य सर्वश्रेष्ठ हैं.
उधर जापानी यह सोच कर बैठे थे कि सूर्य को सब से पहले देखने के कारण वे ही दुनिया के मालिक हैं और बाकी सब देश, समाज, लोग उन से कमतर हैं. युद्धों में जापानियों की बर्बरता व कू्ररता हमेशा ही अति करती रही है.
इस का फर्क आज घरों में देखने को मिल रहा है. उन्हें बहुत कुछ अपनी जाति के कारण झेलना पड़ता है. कभी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए नाटकीय प्रपंच करने होते हैं, व्रतउपवास करने होते हैं, तो कभी पड़ोसी से कम होने के कारण भरे समाज में एकांतवास झेलने को मजबूर होना पड़ता है. आपात स्थिति में भी कोई एकदूसरे का साथ नहीं देता.
शहरों में जो अजनबीपन आसपास के लोगों के बीच पसरने लगा है, उस के पीछे कारण यही है कि हम अपना कुछ को ही समझते हैं और वह पड़ोस में रहता हो यह जरूरी नहीं. पैसा फेंको, सुरक्षा लेने की आदत के कारण अब पड़ोसी पर निर्भरता न के बराबर है. मकान बड़े हों या छोटे, लोगों से बराबर वाले घरों में औपचारिक दुआसलाम के अलावा कोई संबंध नहीं रखो.
कामकाजी औरतें बढ़ गई हैं तो वे और कम चिंता करती हैं कि पड़ोस में कौन रहता है. सब अपने में मस्त हैं. सब ऐसे रहते हैं मानो होटल में रह रहे हों जहां पड़ोस के कमरे में रहने वाले के बारे में पूछताछ करना भी असभ्यता की निशानी माना जाता है और निजता में दखल समझा जाता है.
भारत, अमेरिका, रूस जैसे देशों में यह समस्या अब बढ़ रही है. भारत 1947 में एक विभाजन देख चुका है. पाकिस्तान 1947 और 1971 में विभाजन देख चुका है. आज देश में घरघर में विभाजन की तैयारी चल रही है.
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विवाह अपने धर्म में, अपनी जाति में, गोत्र के हिसाब से, अपने आर्थिक वर्ग के अनुसार ही और इसी चक्कर में आजकल फिर विवाहों में प्रेम कम समझौते ज्यादा होने लगे हैं. कमजोर होते निकाह संस्कार का एक कारण यह भी है कि एक वर्ग के लोग बिलकुल बदलने को तैयार नहीं होते और उन की सोच में लचीलापन नहीं रहता. अलग तरह के लोग जब साथ मिल बैठते हैं तो अपनी आदतों को दूसरों के अनुसार बदल लेते हैं. वैवाहिक विवाद व हिंसा अपनी जाति, अपने धर्म, अपने गोत्र के अनुसार किए विवाहों में ज्यादा होती है, क्योंकि उन में एक साथी के हिंसा के विरोध का हिसाब नहीं होता. जो है जैसा है, सहने की आदत हो जाती है.
देश लोगों से बनता है, लोग घरों और परिवारों से बनते हैं. जब घरों और परिवारों में हम एक हैं की भावना को जानबूझ कर कुचला जा रहा हो तो महान विशाल देश का बने रहने में भ्रष्ट होने लगता है