मिर्जा साहब किसी सरकारी दफ्तर में नौकर थे. 800 रुपए तनख्वाह और इतनी ही ऊपर की आमदनी. खातेपीते आदमी थे. पत्नी थी, लड़का हाईस्कूल में पढ़ रहा था और लड़की जवान हो चुकी थी. बस, यही था उन का परिवार. बेटी की शादी की चिंता में घुले जाते थे. हमारे देश में मनुष्य के जीवन का सब से महत्त्वपूर्ण काम बेटी का विवाह ही होता है. बेटी का जन्म होते ही दुख और चिंता का सिलसिला शुरू हो जाता है. बेटी का जन्म मातापिता के लिए एक कड़ी सजा ही तो होता है.
बेटे के जन्म पर बधाइयां मिलती हैं, जश्न मनाया जाता है और बेटी के जन्म पर केवल रस्मी बधाइयां, ठंडी आहें और फीकी मुसकराहटें, जैसे जबरदस्ती कोई मुसीबत गले में आ पड़े. फिर भी हम छाती ठोंक कर शोर मचाते हैं कि हमारे समाज में स्त्री को आदर और सम्मान मिलता है.
बेटी के विवाह के लिए पिता रिश्वत लेता है, दूसरों का गला काटता है और लूटमार का यह धन कोई और लुटेरा बाजे बजाता हुआ आ कर ले जाता है. दिन दहाड़े सड़कों पर, बाजारों में चोरीडकैती का व्यापार जारी है. सब लुट रहे हैं और सब लूट रहे हैं. सब चलता है.
जो लुटने से इनकार कर दे उस की बेटी बिन ब्याही बूढ़ी हो जाती है. रिश्वत इसी कारण ली जाती है क्योंकि बेटी का विवाह करना है और विवाह मामूली तनख्वाह से नहीं हो सकता.
एक दिन मिर्जा साहब ने बताया कि उन की बेटी के विवाह की बातचीत चल रही है. लड़का जूनियर इंजीनियर था.
तनख्वाह तो 700 रुपए है परंतु ऊपर की आमदनी 2,000 रुपए महीने से कम नहीं. उन्होंने खुश हो कर बताया, ‘‘और आजकल तनख्वाह को कौन पूछता है? असल चीज तो ऊपर की आमदनी है.’’