बदलते सामाजिक परिवेश में दांपत्य जैसा मधुर रिश्ता भी अर्थप्रधान हो चला है. हाल ही में प्रौपर्टी पर हक जताने के चलते पत्नियों द्वारा पतियों को घर से बेघर करने के जो मामले सामने आ रहे हैं, वे साफ संकेत देते हैं कि यदि समय रहते कुछ जरूरी कदम न उठाए गए तो घरों को टूटने से बचाना मुश्किल नहीं नामुमकिन होगा...

बगैर किसी ठोस वजह के पत्नी को छोड़ना पहले जैसा आसान नहीं रह गया है. पति किसी तरह पत्नी को छोड़ भी दे तो कानून उसे आर्थिक जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ने देता.. भारतीय समाज में पत्नियां मकान के लिए पतियों को घर से बाहर निकालेंगी, यह शायद ही किसी ने सोचा होगा. आज अगर ऐसा हो रहा है, तो बात पतियों के सोचने की है वे घर को टूटने से किस तरह बचाएं... ‘‘घर खर्च में पतिपत्नी दोनों किसी न किसी तरह सहयोग करते हैं, इसलिए एक पक्ष संपत्ति पर अपना मालिकाना हक यह कहते हुए नहीं जता सकता कि घर उस के नाम है और वह उस की किस्त चुका रहा है,’’ यह कहते हुए बीती 16 फरवरी को मुंबई की एक अदालत ने एक मामले की सुनवाई करते हुए पत्नी की उस याचिका को खारिज कर दिया, जिस में उस ने लोखंडवाला स्थित फ्लैट से पति को बाहर निकालने की गुहार लगाई थी. इस मामले में पत्नी की दलील यह थी कि उस ने कर्ज ले कर फ्लैट खरीदा था और वही उस की किस्त भरती है.

अदालत ने पत्नी की दलील को खारिज करते हुए पति के पक्ष में फैसला सुनाया. पति का कहना था कि हर महीने वह घर खर्च के लिए क्व90 हजार देता है और आज के वक्त में यह तय कर पाना मुश्किल है कि पतिपत्नी में से किस ने कितना खर्च किया है.

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