हिंदी का मुंबई सिनेमा जिसे बौलीवुड कहा जाता है अब दक्षिण की फिल्मों से डरा हुआ लगता है क्योंकि एक के बाद एक कई दक्षिण में बनी और हिंदी में सिर्फ डब हुई फिल्में सफल हुई हैं. पहले दक्षिण की सफल फिल्मों की उत्तर भारतीय सितारों के साथ नए सिरे से बनाया जाता था पर अब केवल साउंड ट्रैक और कुछ एडििटग से बढिय़ा काम चल रहा है. अल्लू अर्जुन की ‘पुष्पा : द राइज’, ‘आरआरआर’, ‘बहुबली : द बिगिनग’, ‘साहू,’ ‘बहुबली-2’ ने अच्छा पैसा हिंदी में कमाया और इस दौरान बौलीवुड की फिल्में बुरी तरह पिटी.
असल में एक कारण है कि हिंदी फिल्म निर्माताओं की जो पीढ़ी आज बौलीवुड पर कब्जा किए हुए है वह अनपढ़ है, जी हां, अनपढ़. अंग्रेजी माध्यम स्कूलों से रेव पाॢटयों और रैिसग कोर्स में घूमने वाले बच्चे अब एडल्ट हो गए हैं और एक्टर प्रोड्यूसर पिता से फिल्म बिजनैस तो संभाल लिया पर वह जमीनी हकीकत नहीं पाई जिस में वे पलेबड़े थे और जिस जमीन में वे कणकण के वाकिफ थे. आज के युवा निर्माता पार्टी गो भर और विदेशों में रहने वाले हो गए हैं और भारत की जनता का दर्द और समस्याएं जरा भी नहीं समझते.
दक्षिण में जाति और वर्ग का भेद नहीं है, ऐसा नहीं है पर फिर भी वहां ज्यादातर फिल्म निर्माता पिछड़ी जातियों के दर्द को खुद झेल चुके हैं या समझ सकते हैं वे अंधभक्त जरूर हैं क्योंकि वे भी लौजिक, फैक्ट और एनेलिसिस की जगह पूजापाठ में भरोसा करते हैं पर रिएलिटी जानते और समझते हैं.
मुंबई के ऊचे मकानों में रहने वाले नीचे की झोपड़ी बस्तियां देखते हैं पर उन पर वे गुस्सा नहीं होते हैं कि शहर को क्यों घेरे हुए हैं, उन की सामाजिक, आॢथक व धाॢमक सोच के बारे में एबीसी ने जानते हैं और न जानना चाहते हैं. उन के लिए वे ग्राहक हैं पर कंगाल ग्राहक. उन के असल ग्राहक वे हैं जो एजि कमरों में ओमीटी पर फिल्में देखते हैं या विदेश में रह कर भारतीय संस्कृति पर हाउिलग अपने हो या शिएटर में करते हैं.
मुंबई की सिनेमा संस्कृति ने मल्टीप्लैक्स बना कर फिल्मों को आम आदमी से दूर कर दिया है, ….भी व्यायाम हो गई, उस आडियंस के सबजैक्ट भी. दक्षिणी फिल्मों में जंगल भी हैं. गरीबी भी है, गरीबों के प्रति वौयलैंस भी, क्लास डिस्क्रीमिनेशन भी है, गरीब की अमीर पर जीत भी हैं.
हां यह बात दूसरी है कि जैसे रामानंद सागर और ताराचंद बडज़ात्य ने वैश्य होते हुए भी खूब पौराणिक धर्म का प्रचार फिल्मों से किया था, वैसे ही दक्षिणी निर्माता बैक्वर्ड होते हुए भी कट्टर हिंदू धर्म के एजेंट हैं पर पूरे भक्त नहीं है क्योंकि वे उस जमात के हैं उन परिवारों के हैं, जिन्होंने अपने पर होते अत्याचार देखे हैं. हिंदी फिल्मों में यह युग 1950-60 में था जब एक लाभ धाॢमक फिल्में बन रही थीं तो दूसरी ओर विशुद्ध कम्युनिस्ट विचारधारा वाली जिनमें औरतों को भी बराबर का दिखाया गया जैसे ‘मदर इंडिया’ या ‘अछूत कन्या’ में गिया गया. बौलीवुड अब यह मूल बात भूल गया है.
हिंदी वाले दक्षिणी भारतीय फिल्में इसलिए लपक रहे हैं क्योंकि उन में अपना दुखदर्द दिखता है चाहे भव्य सैटों के पीछे छिपा हो और लाउड वौयस और रंगबिरंगे कपड़ों के पीछे हिंदी फिल्म वाले अपने को सुधार पाएंगे, इस में संदेह है. अब सामाजिक और राजनीतिक तौर पर भी दक्षिण हावी होने लगा क्योंकि उसे गाय और राम की नहीं बराबरी और कमाई की िचता है जो दक्षिण की फिल्मों में भी दिखती है.