आजकल मुझे सब से ज़्यादा गुस्सा किस पर आता है, बताऊं? मेरे जैसी तेज़तर्रार, गुस्सैल, ज़िद्दी औरत पर.

हारी भी तो किस से, बताऊं? अरे भई, पति और सास की बात नहीं कर रही हूं मैं, रीना शर्मा,  जिस के बारे में मेरे घर वाले, फिर दोस्तयार, फिर ससुराल वाले कानों पर हाथ रख कर यही कहते रह गए, ‘भई, रीना से कौन जीत सकता है. रीना के कौन मुंह लगे. उलटे जवाब देने की हाज़िरजवाबी में रीना का कोई मुकाबला नहीं कर सकता. रीना को कौन चुप करवा सकता है.’

लेकिन अब उम्र के चौथे दशक में रह जाती हूं मैं चुप, नहीं सूझता मुझे कि इसे क्या बोलूं.

तो आजकल एक तो मुझे डाक्टर गुप्ता पर गुस्सा आता है जिन्होंने मेरी कुछ परेशानियों को देखते हुए किचन में कुछ महीनों के लिए कुकिंग के लिए खड़ा होना बंद कर दिया है. खैर, पहले तो गुप्ताजी मुझे देवदूत से लगे, भई, कितनी औरतों को किचन से छुट्टी मिलती है. खैर, थोड़े ही दिन यह ख़ुशी बनी रह पाई क्योंकि खाना बनाने के लिए फिर दया आ गई. दया...मन में चलने वाला करुणा भाव नहीं...जीती जागती, भोली सी दिखने वाली पर मुझे बातबात में चुप करवा देने वाली दया बाई.

तो हुआ यह कि हर इंसान की तरह दया बाई में भी अपने अलग ही गुणदोष हैं. बस, मैं ने कभी यह नहीं सोचा था कि मेरे घर में, मेरे किचन में खड़े हो कर कोई मुझे ऐसे जवाब देगा कि मैं चुप हो कर खुद ही किचन से निकलना बेहतर समझूंगी. जिस ने कभी किसी की बात सुन कर चुप्पी न साधी हो, वह बाई की बात सुन कर चुप रह जाती है. और दिन होते तो कसम से दया घर में पहले जवाब के बाद ही दिखाई न देती, जैसे सासुमां चाह कर भी यहां कभी ज़्यादा न टिक पाईं.

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