जब बच्चे न हो रहे हों तो आसपास के लोग कहने लगते है कि किसी को गोद ले लो. गोद लेने की सलाह देेने वाले नहीं जानते कि यह प्रोसीजर बहुत पेचीदा और सरकारी उलजुलूल नियमों वाला है जिस में आमतौर पर गोद लेने वाले मांबाप थक जाते हैं. कुछ ही महीनों, सालों की मेहनत के बाद एक बच्चा पाते हैं और उस में भी चुनने की गुंजाइश नहीं होती क्योंकि कानून समझता है, जो सही भी है, कि छोटे बच्चे कोई खिलौने नहीं है कि उन्हें पसंद किया जाए.
इस से ज्यादा मुश्किल गोद हुए बच्चे की होती है. वह नए घर में कैसे फिट बैठता है, यह पता करना असंभव सा है. अमेरिका की अनुप्रिया पांडेय ने कुछ बच्चों से बात की जिन्हें बचपन में भारत से गोद लिया गया था और वे अमेरिका में गोरोंकालों के बीच बड़े हुए. इन में से एक है लीला ब्लैक अब 41 साल की है. 1982 में उसे अकेली अमेरिकी नर्स ने एडोप्ट किया था. लीला ने अपना बचपन एक कौन पिताक्ट में गुजारा पर उसे खुशी थी कि जिस तरह उस की 2 माह की उम्र में हालत थी, वह बचती ही नहीं. अब अमेरिकी प्यार भी मिला, सुखसुविधाएं और हीयङ्क्षरग लौस व सेरीब्रल प्लासी रोग का ट्रीटमैंट भी.
2 बच्चों की एक अमेरिकी गोरे युवक से शादी के बाद लीला ने अपनी जड़ें खोजने की कोशिश की. उस ने भारतीय खाना बनाया, खाया, भारत की सैर 2-3 बार की, होलीदीवाली मनाई, अपने डीएनए टैस्ट से अपने जैसे 3-4 कङ्क्षजस को ढूंढा (न जाने वे चचेरे भाईबहन थे या नहीं पर भारतीय खून उन में है). अमेरिका में हर साल 200 से ज्यादा बच्चे भारत से एडोप्ट किए जाते हैं और उन की एक बिरादरी सी बन गई है. भारत में गोद लिए गए बच्चों के सामने मांबाप से मिलतेजुलते रंग, भाषा, कदकाठी के अलावा जाति का सवाल भी आ खड़ा होता है. कुंडलियों में आज भी विश्वास रखने वाला ङ्क्षहदू समाज यहां किसी भी गोद लिए बच्चो को आसानी से अपने में मिलाता है. पिछले जन्म के कर्मों का फल सोच कर हमेशा भारी रहता है.
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