एक बड़ा सा विज्ञापन देकर देश की 10 प्लास्टिक का सामान बनाने वाली ऐसीसिएशनों ने सरकार से अपील की है कि माइक्रो व स्मौज प्लास्टिक प्रोड्यूसर्स को सरकार के क्रूर इंस्पैक्टर राज वाले एक्सटेंडेड प्रोड्यूसर रिस्पौंसिविलिटी रेगूलेशनों से मुक्ति दिलाई जाए. कहने को तो यह दुहाई ऋषि विश्वामित्र के राजा दशरथ के दरबार में राक्षसों से आश्रम बचानें जैसी है पर यह भूल गए कि दशरथ के साथ भेजने से राक्षस (जो भी लोग वे इस कथा में थे) खत्म नहीं हुए.

रामलक्ष्मण द्वारा राक्षसों को विश्वामित्र को भगा देने के बाद भी लंका सोने की बनी रही और रावण के मरने के बाद भी वह समाप्त नहीं हुई विभीषण के हाथ में गई और फलीफूली. इसलिए प्रधानमंत्री से बड़ा विज्ञापन दे कर इंस्पैक्टर राज के क्रूर हाथों से मुक्ति मिलेगी, यह प्लास्टिक प्रोड्यूसर भूल जाएं.

बड़ी बात है कि देश में प्लास्टिक से प्रदूषण के लिए प्रोड्यूसर नहीं हमारी वह धाॢमक संस्कृति है जो कचरा फैलाने को हर रोज प्रोत्साहित करती है. प्लास्टिक को जो उपयोग करते हैं, वे समझते हैं कि धर्म ने सफाई करने की जिम्मेदारी किसी और पर डाल रखी है और उन का काम गंद फैलाना है. चाहे प्लास्टिक की हो या कागज की या पत्तों व मिट्टी के पक्के बरतनों से.

प्लास्टिक उद्योग ने देश की जनता का बड़ा भला किया है. करोड़ों टन खाना आज प्लास्टिक के कारण बरबाद नहीं होता क्योंकि उसे प्लास्टिक में लाया ले जाया जाता है और घर व फ्रिजों में रखा जाता है. एक छोटी सी थैली ले कर बड़ेबड़े टैंक तक प्लास्टिक के बन रहे हैं जिन्होंने जीवन को सरल व सस्ता बनाया है. प्लास्टिक का इस्तेमाल आज इतनी जगह हो रहा है कि गिनाना संभव नहीं है.

प्लास्टिक का इस्तेमाल करने वालों की नैतिक व कानूनी जिम्मेदारी है कि वे खुद अपने फैलाए गंद को साफ करें, यह काम और कोई नहीं करने आएगा. गाय का कुत्तों का मल सडक़ों पर है तो उन के मालिकों या संरक्षकों का काम है कि वे उसे साफ करें.

पर जैसे गोबर व गौमूत्र का गुणगान करना सिखा दिया गया है और उसे सहने की और सडऩे पर बदबू की आदत धर्म ने देश की जनता को डाल दी है, वही आदत प्लास्टिक के इस्तेमाल में डली हुई है. अच्छे से अच्छा जमा प्लास्टिक की थैलियों से ले कर खराब हो गए डब्बे, ड्रम सडक़ों पर डाल देता है. रिसाइकल वाले ले जाते हैं पर जिस को रिसाइकल न किया जा सके वह पड़ा रह जाता है. सालभर में देश की 30-35 लाख टन प्लास्टिक की वेस्ट अगर सडक़ों पर पड़ी रहती है तो जिम्मेदारी बनाने वाली की नहीं, इस्तेमाल करने वालों की है.

उस से बड़ी जिम्मेदारी सरकारी विभागों की है जो प्लास्टिक वेस्ट को उठाने, उसे सही ढंग से डिस्पोजबल करने के तरीके नहीं ईजाद कर रहे या लागू कर रहे. नगर निकायों से ले कर केंद्रीय सचिवालय तक प्लास्टिक कचरा निबटान पर कोई सोच नहीं है. सिर्फ बैन कर देना समस्या का हल नहीं है.

आज हर तरह की तकनीक मिल रही है. प्लास्टिक दिखने वाला प्रदूषण न फैलाए इस के लिए तो हर घर में मशीनें लगाई जा सकती हैं जो प्लास्टिक को कंप्रैस कर दें. नगर निकाय इन को तुरंत उठा कर रिसाइकल प्लांटों को दे सकते हैं. इन्हें जलाने की जगह इन्हें हाई प्रेस कर के भराव के काम में आसानी से लाया जा सकता है जहां आज मिट्टी पत्थर का इस्तेमाल होता है. यह समस्या इतनी विकराल नहीं है जितनी हम ने बना रखी है.

दिक्कत यही है कि हम जैसे अपनी गरीबी, बीमारी, संकटों के लिए पंडितों की बनाई बात कि यह पिछले जन्मों के पापों का फल है, मान लेते हैं. प्लास्टिक पोल्यूशन के लिए प्लास्टिक प्रोड्यूसर्स को दोषी मान रहे हैं. यह टके सेर यानी, टके फेर खाजा, अंधी प्रजा काना राजा वाली कहानी को दोहराता है.

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