शुरू में तो वसु ने सोचा शांत रहेगी तो विभोर का ग़ुस्सा कम हो जाएगा. लेकिन वसु का शांत मृदु स्वभाव भी विभोर में कोई परिवर्तन नहीं ला पा रहा था.

रोज अपने और विभोर के बीच स्नेहसूत्र पिरोने का प्रयास करती लेकिन विभोर किसी पत्थर की तरह अपने विचारों पर अडिग रहता. वसु औफिस जाने के पहले सारे काम निबटा रही होती और विभोर आराम से टीवी पर नित्य नए बाबाओं की बेमानी बातें बड़े ध्यान से सुनता जो उस के मानसपटल पर अंकित हो उस के पुरुष अहम को पोषित करतीं. हर बात में सुनीसुनाई उन्हीं बातों को करता. कभी वसु कोई काम

कहती भी तो गुस्से में चिल्ला कर उस का अपमान करता. आज वसु सुबह जल्दी उठ गई थीप्त उसे औफिस जल्दी जाना था. उस ने अपने साथ सब की चाय बना ली और विभोर को देते हुए कहा, ‘‘विभोर, मैं ने दीदी की चाय भी बना दी है. मैं नहाने जा रही हूं. मुझे आज औफिस जल्दी जाना है. दीदी उठे तो आप उन्हें गरम कर के दे देना.’’

वसु की ननद भी अपने छोटे बच्चे के साथ रहने आई हुई थी.

इतना सुनते ही विभोर का मूड उखड़ गया. चिल्ला कर बोला, ‘‘वसु, मैं देख रहा

हूं, तुम मां को इगनोर कर रही हो, मां का नाश्ता तुम बना कर केसरोल में रख दोगी और आज तो तुम्हें छुट्टी लेनी चाहिए थी, सुमन आई हुई है.’’

‘‘मैं शाम को जल्दी आने की कोशिश करूंगी विभोर मगर छुट्टी नहीं ले सकती. मेरी प्रमोशन डियू है और विभोर आप चिल्ला क्यों रहे हो? शांति से भी तो कह सकते हो. अच्छा नहीं लगता जब आप चिल्लाते हो वह भी सब के सामने.’’

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