‘‘बारिश अब कहां सावन की राह देखती है. नवंबर आने को है और छटा तो ऐसे बरस रही है जैसे जुलाई का महीना हो,’’ मन ही मन बुदबुदाते हुए मालिनी वार्डरोब में कुछ ढूंढ़ रही थी. तभी एक पुरानी डायरी मिली, जिस में से सूखा हुआ गुलाब नीचे गिर गया. पंखुडि़यां सूख चुकी थीं. अब रंग भी कुछ गहरा हो गया था. पर यादें अब भी बारिश की बूंदे पड़ने पर खुशबू देने वाली मिट्टी की तरह ताजा हो कर महका गई थीं...
कालेज मे देव मु?ो सुहाने मौसम का मजा लेने को उकसाते थे. फिर हमारी दोस्ती प्यार के गलियारे से गुजरते हुए शादी की चौखट पर आ गई. सुहाने मौसमों का दौर अब हमारे जीवन से जाने लगा था.
डोरबैल बजी तो मेरा ध्यान उन यादों से बाहर आ गया. दरवाजा खोला तो सामने मेरे हसबैंड औफिस से आ गए थे.

‘‘मालिनी मैं फ्रैश होने जा रहा हूं. आज काफी थक गया. आज औफिस में काफी काम था,’’ सोफे पर औफिस बैग रखते हुए उन्होंने  कहा.

मैं ने भी हां में सिर हिला दिया. यह नई बात नहीं थी कि उन्होंने मु?ा पर ध्यान नहीं दिया. आज मैं ने उन का पहला तोहफा पहना था जो उन्होंने मुझे शादी के बाद दिया था. वक्त रिश्तों में वाकई कई बदलाव ला देता है, यह मुझे महसूस होने लगा था.

ऐसे बदलाव जिन के हम आदी नहीं होते हैं या शायद नहीं होना चाहते हैं. मेरे हसबैंड जो मेरी चाय के बिना न तो शाम की थकान उतारते थे और न ही सुबह की शुरुआत करते थे उन का ध्यान धीरेधीरे ही सही कम हो रहा था मु?ा पर से, हमारे रिश्ते पर से.

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