आधुनिक समाजों की तुलना में हमारी महिलाएं पिछड़ रही है। वैसे तो विश्व में ज्यादातर समाजों में आदमियों की ही चलती है. हर जगह महिलाओं की स्थिति दोयम है. पुरुष ही तय करते हैं कि महिलाओं को क्या सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षणिक, व न्याय के हक दें.

21वीं सदी में भी अधिकतर पुरुष महिलाओं को धर्मों की बनाई दृष्टि से देखते हैं.

नेतृत्व में महिलाओं की कमी है.
गरीबी औरतों में ज्यादा है
आर्थिक अवसरों की कमी है
कार्यस्थल पर भेदभाव और असमानताएं हैं
सामाजिक मानदंड औरतों को दबाते हैं.
धार्मिक प्रथाएं औरतों का शोधन करती हैं
महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ हिंसा हर जगह हो रही है.

रीति रिवाज़ों को बढ़ावा देते हुए रुक गया है खुद का ही विकास

स्त्री के आत्मनिर्भर होने का यह मतलब यह रह गया है कि वे खुद पूजा-पाठ कर लें. या फिर सिंदूर न लगाएं. सभी रीति रिवाज़ महिलाओं के लिए ही हैं. सिर्फ महिलाएं ही पति की लंबी आयु के लिए व्रत रखतीं हैं. पहले सती प्रथा हुआ करती थी जिसमें पति की मृत्यु हो जाने पर बीवी को पापिन कह कर आग में धकेल दिया जाता था। लेकिन अब इस कुरीति पर रोक है। कहने को दहेज प्रथा के लिए सरकारी द्वारा रोक लग चुकी है, लेकिन अंदर ही अंदर बहुत से राज्यों में यह जोर शोर पर है.

प्राकृतिक रूप से होने वाली माहवारी (पिरियड्स) होने पर आज भी उनके प्रति बुरा बर्ताव किया जाता है या वे खुद को अपवित्र मान कर रसोईघर में घुसने, आंगन में बैठने और यहां तक कि नए कपड़े नहीं पहनती.

रिवाजों के नाम पर भारत में पत्नियों से जबरदस्ती व्रत रखवाया जाता है. हिजाब, घूंघट, सिर पर पल्लू प्रथा का चलन ज़ोर-शोर से चल रहा है. एक तरफ तो उनसे घूंघट करवा लिया जाता है और वहीं दूसरी ओर यह अपेक्षा भी की जाती है की वे उसी घूंघट में घर के सभी काम करें। इन प्रताड़नाओं के जिम्मेदार पुरूष वर्ग ही हैं. वे स्वयं इतने कष्टों से जीवन यापन करती है, और उसके बावजूद भी उन रिवाजों को खत्म करने की बजाए अपनी बेटियों और बहुओं से अपेक्षा करती है कि वे भी उन्हीं की तरह उस तरह से जीवन यापन करें.

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