आखिर एक औरत ही क्यों कभी मातापिता के लिए, तो कभी पतिबच्चों के लिए ऐडजस्ट करती रहे? आशा के साथ भी यही होता आ रहा था. एक दिन उस ने खुद को बदलने का फैसला कर लिया...
किचन में चाय बनाती हुई आशा की फटी कुरती से झांकती उस की बांह देख अनिल को याद आया कि उस ने उस से कुछ पैसे मांगे थे अपने वास्ते कपड़े खरीदने के लिए और अनिल ने कहा था कि हां ठीक है ले लेना मगर वह भूल गया. काम की व्यस्तता के कारण उसे याद ही नहीं रहा और आशा यह सोच कर चुप लगा गई कि शायद अभी अनिल के पास पैसे नहीं होंगे. कोई बात नहीं अगले महीने ले लेगी. लेकिन अनिल को तो अगले महीने भी याद नहीं रहा कि आशा को पैसे देने हैं. आशा ने भी फिर पैसे इसलिए नहीं मांगे कि जब होगा खुद ही दे देगा.
‘ओह,’ एक गहरी सांस लेते हुए अनिल खुद में ही बुदबुदाया, ‘आमदनी अठ्ठनी और खर्च रुपया. यहां कमाई से ज्यादा तो खर्चे हैं घर के. तनख्वाह आते ही ऐसे उड़ जाती है जैसे पतंग. चलो, आज बैंक से थोड़े पैसे निकाल कर आशा को दे दूंगा,’ सोच में मग्न अनिल को यह भी ध्यान नहीं रहा कि आशा चाय रख गई है.
‘‘चाय ठंडी हो रही है, पी लो,’’ आशा ने टोका तो अनिल अचकचा कर उधर देखने लगा. ‘‘पता है न अगले महीने से अमन बेटे की बोर्ड की परीक्षा शुरू होने वाली है? लेकिन तुम चिंता मत करो, उस की तैयारी अच्छी चल रही है. अच्छा, मैं नाश्ता तैयार कर देती हूं तब तक तुम स्नान कर लो,’’ बोल कर आशा जाने ही लगी कि उसे एक जरूरी बात याद आया गया और पलट कर फिर बोली, ‘‘अरे सुनो, मांजी की दवा खत्म हो गई है. औफिस से आते वक्त लेते आना. अच्छा, तुम रहने देना. मु?ो आज बाजार जाना ही है तो मैं ही ले आऊंगी.’’