रविवार की दोपहर का वक्त है, एक औसत मध्यवर्गीय परिवार का घर.
सुष्मिता: भई, कितनी बार कह चुका हूं कि आज रविवार दोपहर में खाने में क्या और्डर करना है., कम से कम यह तो बता दो.
‘‘अच्छा तुम कहो तो सांभरबड़ा और मसाला डोसा मंगा लेती हूं.’’
‘‘हां, यही और्डर कर दो,’’ भुनेंद्र ने कहा.
फिर सुष्मिता ने सांभरबड़ा और मसाला डोसा और्डर कर दिया.
शाम का समय
‘‘सुष्मिता, अब शाम का तो बता दो कि खाना क्या बनाऊं? सुबह तो तुम्हारी पसंद का सांभरबड़ा और मसाला डोसा खाया था. भई, सम?ा में नहीं आता कि कैसी होममेकर हो तुम. यह सब तुम्हारा काम है... मुझे इतनी सारी फाइलें देखनी हैं. तुम्हारी जौब में होमवर्क नहीं है, मेरी जौब में तो है. इन्हें आज ही निबटाना है मु?ो.’’
‘‘इन्हें तो जैसे घर से कोईर् मतलब ही नहीं है. जब देखो दफ्तर का काम,’’ सुष्मिता बड़बड़ाई.
मंगलवार की प्रात:
‘‘क्या औफिस के लिए खाने में कुछ तैयार है? मु?ो आज दफ्तर जरा जल्दी जाना है.’’
‘‘अभी कहां, मैं तो बस तुम से पूछने ही
आ रही थी कि औफिस लंच के लिए कल के पिज्जा स्लाइस रखूं या फिर आलू के परांठे बनाऊं?
‘‘उफ, फिर वही ?ागड़ा. कुछ अपने दिमाग का भी इस्तेमाल किया करो. मु?ो तो तुम अगर तैयार हो तो वही दे दो नहीं तो मैं चला. आज कैंटीन में ही खा लूंगा.’’
‘‘ठीक है फिर कैंटनी में खा लेना.... तुम्हारी मरजी ही चलेगी.’’
शाम
‘‘आज तो घर आने में बड़ी देर कर दी, कहां भटक गए थे? 4 घंटे से अकेले घर में
पड़ी हूं.’’
‘‘दफ्तर में काम ज्यादा था. अच्छा, लाओ खाना, बड़े जोरो की भूख लगी है.’’