उस दिन इतवार था. अनीता अपने बालों में रम्मो से तेल लगता रही थी. बालों की जड़ों को 3-4 घंटे तेल मिल जाए, यही बहुत होता है. उस ने सोचा, दोपहर के भोजन से पहले नहाधो कर बाल सुखा लेगी. जब से ग्रेटर कैलाश, नई दिल्ली की इस नुक्कड़ की कोठी की रसोई वाली बरसाती किराए पर ली थी, तब से घर में कुछ शांति सी आ गई थी और घर का सा आराम मिला था. पुरानी दिल्ली के सदर बाजार में भले ही किराया यहां से आधा था पर हर समय की रोकटोक से अनीता परेशान रहती थी. इतनी पूछताछ तो घर पर मां भी नहीं करती थीं, जितनी वहां मकानमालकिन किया करती थी. हर समय की इसी पूछताछ से तंग आ कर उस ने वह मकान छोड़ा था.

अनीता का जब से अरविंद से तलाक हुआ था, तब से मां बराबर इसी सोच में रहती थीं कि जवान बेटी का अब क्या बनेगा. अगर अनीता कोई छुईमुई तो थी नहीं. स्वाभिमान खो कर पति के हाथों की कठपुतली बने रहना उसे कतई पसंद नहीं था, अपने बलबूते पर ही उस ने तलाक ले लिया था. एक बार तो अरविंद भी उस की हिम्मत का लोहा मान गया था. फिर भला ऐसी युवती को नौकरी की क्या कमी.

यह सच था कि पतिपत्नी के बीच की दरार को अरविंद की मां अपने होते हुए कभी भरने की सहिष्णुता नहीं कर सकती थीं. कचहरी में भी तारीख पर बेटे के साथ सुनहरे फ्रेम का चश्मा लगाए स्वयं हाजिर हो जाती थीं. उन का यह दबदबा ही अनीता को खलता था और उधर उन्हें अपनी हुक्मउदूली करती बहू बेहद अनुशासनविहीन लगती थी. ऐसी बहू को अपने अनुशासित बेटे के साथ देखना वे हरगिज

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