मुगलों, तुर्कों से ले कर अंगरेजों और पुर्तगालियों तक सभी ने भारत से बहुत कुछ लिया लेकिन सिर्फ लिया ही, यह कहना जरा बेईमानी हो जाएगा. मुगलों का दिया मुगलई जायका, अंगरेजों की दी चाय की चुसकी और पुर्तगालियों का काजू आज लगभग हर आम भारतीय के रोजमर्रा के स्वाद में चाशनी की तरह घुलमिल चुका है. न सिर्फ भारतीय खाने पर बल्कि उसे बनाने की तकनीक पर भी कई विदेशी पाककलाओं की अमिट छाप है.

आइए, जानते हैं भारतीय खाने से जुड़ी ऐसी ही कुछ दिलचस्प बातें:

इडली: दक्षिण भारतीय खाने का अहम हिस्सा इडली आज लगभग हर भारतीय के नाश्ते की टेबल पर होती है क्योंकि यह सेहतमंद मानी जाती है. मगर क्या यह वाकई भारतीय आविष्कार है? कर्नाटक के फूड साइंटिस्ट और फूड हिस्टोरियन के. टी. आचार्य का मानना है कि इडली इंडोनेशिया की राइस स्टीम्ड डिश केडली का अवतार है. 7वीं से ले कर 12वीं शताब्दी तक इंडोनेशिया के कई हिंदू राजा भारत में छुट्टियां मनाने या फिर दुलहन ढूंढ़ने आया करते थे. राजाओं के साथ उन के कुक भी आते थे. इन राजाओं के साथ आई केडली आज भारत में राइस इडली, रवा इडली और रागी इडली जैसे कई जायकों में मिल जाती है. कुछ फूड हिस्टोरियन का यह भी मानना है कि इडली विशुद्ध भारतीय है लेकिन इसे स्टीम करने की कला इंडोनेशिया से मिली है.

जलेबी: देश के हर छोटेबड़े शहरकसबे के नुक्कड़ वाले हलवाई की दुकान पर दिनभर चाहे जो कुछ बिके लेकिन सुबह और शाम तो जलेबी के ही नाम होती है. सुन कर शायद जलेबी के दीवानों को अच्छा न लगे मगर सच यही है कि जलेबी विशुद्ध भारतीय डिश नहीं. 10वीं शताब्दी की मुहम्मद बिन हसन अल बगदादी की लिखी कुक बुक ‘किताब अल तबीख’ में रमजान के महीने में इफ्तारी में खाई जाने वाली एक डिश जुलबिया के बारे में लिखा है. यही जुलबिया तुर्क और पर्सिया के व्यापारियों के साथ सफर करतेकरते भारत आने के बाद जलेबी बन गई. वैसे इसे भारतीय बताने वाली भी एक किताब है. 16वीं शताब्दी में रघुनाथ की लिखी किताब ‘भोजनकुतूहलम’ में जलेबी बनाने की जो विधि बताई गई है लगभग उसी तरह से आज भी इसे बनाया जाता है. खैर, आप जलेबी का जायका लीजिए इतिहास बाद में देखा जाएगा.

आगरा का पेठा: इस मीठी डिश के पीछे सोच चाहे मुगलों की हो लेकिन इस की पैदाइश भारत के आगरा शहर में ही हुई. किस्साकारों की मानें तो ताजमहल के निर्माण के दौरान लगभग 21 हजार मजदूर काम कर रहे थे जो रोज का खाना खाखा कर बोर होने लगे थे. इसी बीच एक दिन शाहजहां ने ताजमहल के आर्किटैक्ट उस्ताद ईसा से कहा कि कामगरों में जोश भरने के लिए कोई ऐसी डिश तैयार की जाए जो ताजमहल के जैसी नायाब हो. जब यह बात शाही कुक तक पहुंची तो उन्होंने अपनी टीम के साथ मिल कर पेठा का आविष्कार किया. अब यह बात अलग है कि आगरा से ले कर लगभग हर शहर के गलीनुक्कड़ पर यह डिश अपनेअपने तरीके से बनाई और बेची जा रही है.

लड्डू: उत्सव हो या खुशी का मौंका मुंह मीठा कराने के लिए लड्डू को ही प्राथमिकता दी जाती है. इतिहासकारों की मानें तो लड्डू का आविष्कार चौथी सदी ईसा पूर्व वैद्य सुश्रुत ने किया था. सुश्रुत मरीजों को दवा देने के लिए हर्ब्स, बीज और दूसरी औषधियां मिला कर लड्डू बनाते थे. फिर समय के साथ तिलगुड़, मेवा इत्यादि के अलगअलग लड्डू बनने लगे. फिर मौसम के बदलने के अनुसार लड्डू की नईनई रैसिपीज बनने लगीं. यानी लंबे समय तक लड्डू को एक स्वादिष्ठ औषधि के रूप में खाया जाता रहा. माना जाता है कि चोल साम्राज्य के सैनिक अपनी लंबी यात्राओं में लड्डू साथ रखते थे. लड्डू धार्मिक आयोजनों में कैसे आ गए इस का कोई साक्ष्य नहीं मिलता.

एक दिलचस्प कहानी ठग्गू के लड्डू की भी है कि गुड़ से बने औषधीय गुण वाले लड्डूओं में चीनी का प्रयोग ब्रिटिश काल में शुरू हुआ और चीनी सेहत के लिए अच्छी नहीं मानी जाती. इस तरह लड्डू की रैसिपी में ठगी कर के ठग्गू के लड्डू बने और मशहूर हुए. खैर, न तो अब वे लड्डू रहे और न ही कोई जानता है कि असली ठग्गू के लड्डू की दुकान कहां खुली थी.

करी: करी के बिना भारतीय खाने की कल्पना भी नहीं की जा सकती. हालांकि, करी भारतीय खाने का हिस्सा कब बनी इस पर इतिहासकारों और शोधकर्ताओं के अलगअलग मत हैं. कुछ इतिहासकारों के अनुसार करी इंडस वैली सिविलाइजेशन के दौर की देन है तो कुछ इतिहासकार मानते हैं कि करी का विकास ब्रिटिश काल के दौरान हुआ. ब्रिटिशों ने भारत में अपने समय के दौरान भारतीय मसालों को मांस या सब्जियों के साथ मिलाया और इसे चावल के साथ परोसा. इस मिश्रण को करी कहा गया, जो माना जाता है कि तमिल शब्द ‘करी’ जिस का अर्थ है सौस का रूप था. दूसरी ओर, कई शोधकर्ताओं का मानना है कि करी भारतीय भोजन का हिस्सा सदियों से रही है. भारतीय भोजन में मसालों का उपयोग प्राचीनकाल से ही किया जाता रहा है. प्राचीन ग्रंथों और ऐतिहासिक दस्तावेजों में भी मसालों और उन के मिश्रण का उल्लेख मिलता है जो करी के स्वरूप में आ सकते हैं.

समोसा: समोसे के स्वाद की ही तरह इस की कहानी और इस का सफर भी बेहद दिलचस्प है. समोसे का इतिहास 10वीं सदी के मिडल ईस्ट से जुड़ा हुआ है. समोसा, जिसे उस समय ‘संबोसा’ कहा जाता था, का पहली बार उल्लेख ईरानी इतिहासकार अबुलफजल बेहेकी की ‘तारीख ए बेहेगी’ में किया गया था. समोसे का मूल आकार बहुत छोटा था और यही कारण था कि इसे सफर करने वाले थैलियों में आसानी से पैक कर के ले जा सकते थे और चलतेफिरते खा सकते थे. दिल्ली सल्तनत के मशहूर शायर अमीर खुसरो ने जब कीमा, प्याज और घी इत्यादि के मिश्रण से बने समोसे का जिक्र उस दौर में किया तब इसे भारत में पहचान मिली.

14वीं सदी के ट्रैवेलर और राइटर इब्न बतूता ने भी समोसे का उल्लेख किया. उन्होंने ‘संबुसक’ (समोसा) का वर्णन किया, जोकि कीमा, अखरोट, पिस्ता, बादाम और मसालों के मिश्रण से तैयार किया जाता था. यह समोसा मोहम्मद बिन तुगलक के दरबार में शाही भोजन के हिस्से के रूप में परोसा जाता था. मिडल ईस्ट से ले कर भारत तक समोसे ने सिर्फ अपने नाम ही नहीं बदले बल्कि अपनी फिलिंग को भी बदला यानी जैसा देश वैसा भेष. भारत में तो चाय, चटनी और समोसे की दोस्ती अटूट है.

वैसे आप तो बस खाने के स्वाद से मतलब रखिए, किस ने किस डिश का आविष्कार किया, कौन सी डिश पर्शिया से आई इस सब से आप का क्या लेनादेना. जायकेदार खाना असीम आनंद देता है और हमें आनंद के सिवाय भला और क्या चाहिए.

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