आज स्त्रियां पढ़लिख कर अपनी काबिलीयत दिखा रही हैं. उन के पास आगे बढ़ने के मौके भी हैं. इसलिए आज हमें समाज और दुनिया की संरचना इस तरह करनी चाहिए कि पुरुष और स्त्री के लिए बराबर की भूमिका हो. अब तकनीक ने बराबरी के मौके ला दिए हैं. अब भोजन लाने के लिए जंगल नहीं बल्कि सुपर स्टोर या मौल जाना होता है. एक स्त्री इस काम को बेहतर तरीके से कर सकती है.
अगर कभी हम अपनी आंखें बंद कर के खाना बनाते किसी शख्स की तसवीर सोचें तो वहां कौन होगा? यकीनन एक मां, एक बहन, एक पत्नी या कुल मिला कर कहें तो एक महिला की तसवीर दिखेगी. हम कभी सोचते हैं कि ऐसा क्यों है? क्यों हमें किचन में पिता, भाई या कोई अन्य पुरुष खाना बनाते हुए नहीं दिखता? वहीं अगर आप होटल, रेस्तरां या ढाबे जैसी जगहों की बात करें तो हमें कभी महिलाएं नहीं दिखतीं या बहुत कम दिखती हैं.
दरअसल, जहां इस काम के लिए पैसे मिलते हैं वहां अमूमन पुरुषों का कब्जा है. समाज के ये पितृसत्तात्मक मानदंड लोगों को जकड़े हुए हैं. पारिवारिक नियमकायदे सब उसी हिसाब से बने हैं.
हमारे घरों में आमतौर पर खाना बनाने का काम महिलाओं का ही रहा है. सदियों से यह रिवाज चलता आ रहा है कि घरेलू काम जैसे साफसफाई, ?ाड़ूपोंछा, कपड़े, बरतन धोना,
खाना बनाना, बच्चों को संभालना आदि महिलाएं करेंगी और घर के बाहर के काम पुरुष करेंगे. पहले कमाने की जिम्मेदारी केवल पुरुषों की होती थी मगर आज अनेक महिलाएं भी नौकरी करने लगी हैं.
वे पूरा दिन औफिस में माथापच्ची करती हैं. इस के बावजूद उन्हें घरेलू काम भी साथ में करने होते हैं. चाहे वे कितनी भी व्यस्त हों, भले ही औफिस जाने में कितनी देर हो रही हो, उन्हें हर काम निबटा कर ही जाना होता है. अगर वे ऐसा नहीं कर पा रहीं तो उन्हें नौकरी छोड़ने की सलाह दी जाती है. बच्चा छोटा है तब भी उन्हीं की नौकरी पर गाज गिरती है, जबकि परिवार पति और पत्नी दोनों का है तो क्या उन्हें मिल कर काम नहीं करने चाहिए?
काम का बंटवारा
हम अकसर स्त्रीपुरुष बराबरी या समानता की बात करते हैं. यह आज की जरूरत भी है और स्त्रियों का हक भी. यहां बराबरी यानी समानता से मतलब है समान मौका, समान इज्जत, सामान दायित्व और एक समान अहमियत. आज परिस्थितियां काफी बदल चुकी हैं और बहुत से क्रियाकलाप पुरुष और स्त्रियां दोनों कर सकते हैं जो पहले के जमाने में संभव नहीं था. हजारोंलाखों साल पहले ज्यादातर लोग गांवों में रहते थे और चारों ओर जंगल होता था. हर जगह जंगली पशु होते थे. उस समय कोई दुकान भी नहीं होती थी जहां से कुछ खरीदा जा सके.
आप को रोजाना शिकार करना होता था या खाने के लिए कहीं से कुछ तोड़ कर लाना होता था. बाहर जा कर यह काम करने के लिए पुरुष निश्चित तौर पर उपयुक्त था. स्त्री के लिए एक प्राकृतिक जिम्मेदारी थी बच्चे पैदा करने की. अगर वह छोटे शिशु को ले कर जंगल जाती तो उसे खाली हाथ लौटना पड़ सकता था. इसलिए बच्चों के कारण स्त्री को घर में रखा जाता था और पुरुष भोजन की तलाश में बाहर जाता था. बच्चों की सुरक्षा भी सुनिश्चित होती थी. इसलिए उस वक्त यह काम का एक आदर्श बंटवारा था.
तकनीक ने बराबरी के मौके दिए हैं
आज वक्त बदल चुका है. आज स्त्रियां पढ़लिख कर अपनी काबिलीयत दिखा रही हैं. उन के पास आगे बढ़ने के मौके भी हैं. इसलिए आज हमें समाज और दुनिया की संरचना इस तरह करनी चाहिए कि पुरुष और स्त्री के लिए बराबर की भूमिका हो. अब तकनीक ने बराबरी के मौके ला दिए हैं. अब भोजन लाने के लिए जंगल नहीं बल्कि सुपर स्टोर या मौल जाना होता है. एक स्त्री इस काम को बेहतर तरीके से कर सकती है. रोजीरोटी कमाने का मतलब अब भाला फेंकना और पशुओं का शिकार करना नहीं रह गया है. अब इस के लिए आप को कीबोर्ड पर टाइप करना होता है, कंप्यूटर पर काम करने होते हैं, कागजकलम का उपयोग करना होता है या फिर अपनी वाकपटुता से काम निकालना होता है.
स्त्री इस तरह के काम को भी बेहतर ढंग से कर सकती है क्योंकि उसे हर घंटे उठ कर बाहर का नजारा लेने, सिगरेट सुलगाने या पान चबाने की आदत नहीं होती. वह काम के लिए बैठती है तो बस काम करेगी. स्त्रियां इन चीजों को पुरुषों से बेहतर करती हैं. यह सब इंसानी दिमाग के विकास या स्त्री की आजादी या पुरुषों की उदारता की वजह से नहीं हुआ है. यह बस तकनीक का विकास है. इस से बराबरी के मौके उत्पन्न हुए हैं.
स्त्री हो या पुरुष फर्क कहां है
जब आप सड़क पर चल रहे हों तो आप को इस बात की चिंता क्यों होनी चाहिए कि सामने वाला व्यक्ति स्त्री है या पुरुष? यह चीज सिर्फ बाथरूम या बैडरूम में ही माने रखती है बाकी किसी जगह इस बात का कोई महत्त्व नहीं होता. सड़क पर, काम करने की जगह पर या फिर हम कहीं भी हों वहां इस बात का फर्क क्यों पड़ना चाहिए कि कोई व्यक्ति स्त्री है या पुरुष? हम उन्हें सिर्फ इंसान के तौर पर क्यों नहीं देख सकते? और जब बात नौर्मल इंसान की है तो उसे घर के काम भी करने होंगे और बाहर के भी.
यह कहने का कोई औचित्य नहीं कि घर की साफसफाई या किचन के काम स्त्री की जिम्मेदारी हैं और बाहर के काम पुरुष को संभालने होंगे. जब स्त्री कमाने के लिए बाहर जा सकती है तो पुरुष घर में टिक कर किचन और बच्चे क्यों नहीं संभाल सकता?
दरअसल, हम लोगों को उन के लिंग से पहचानते हैं. वह स्त्री है तो उस में स्त्रियोचित गुण होने चाहिए. वह घर की रानी कम और दासी ज्यादा है और इस हकीकत को ठुकरा नहीं
सकती, जबकि वह पुरुष है तो वह घर का मालिक है. स्त्री भला पुरुष से बराबरी कैसे कर सकती है? स्त्री को बाहर जा कर कैरियर बनाने का शौक है तो बनाए मगर घर की जिम्मेदारी निभाने के बाद यानी लोगों को आप उन की
बुद्धि से नहीं, उन की काबिलीयत से नहीं, उनकी क्षमता से नहीं बल्कि उन के लिंग से पहचान रहे हैं.
दुनिया को देखने का यह तरीका ठीक नहीं है. हमारे जीवन के कुछ पहलुओं के लिए लिंगगत पहचान महत्त्वपूर्ण होती है लेकिन जीवन के बाकी हिस्से में ज्यादा अहम यह होता है कि आप के पास दिमाग कितना है, आप कितने योग्य हैं, आप किस काम में ज्यादा निपुण हैं. लिंग से पहचानना जीवन के कुछ खास रिश्तों के लिए जरूरी होता है. बाकी रिश्तों में लिंग से पहचानने की बात तो बीच में आनी ही नहीं चाहिए. केवल तभी दोनों के बीच समानता होगी.
घरेलू काम करना मदद क्यों कहलाता है
समाज के नियमों के अनुसार खाना बनाना सिर्फ महिलाओं का काम है. यह एक सामाजिक धारणा है. पुरुष चाहें तो खाना बनाने में अपनी भागीदारी निभा सकते हैं. समाज ने कभी महिलाओं को इतना हक नहीं दिया कि वे पुरुषों से पूछ सकें कि अगर खाना वे खा रहे हैं तो
बनाने का जिम्मा सिर्फ घर की स्त्रियों के ऊपर ही क्यों है? क्या पुरुषों की जिम्मेदारी सिर्फ खाना है? बहुत से लोगों से जब पूछा जाता है कि क्या आप घर का काम करते हैं या खाना बनाते हैं तो उन का जवाब होता है कि वे पत्नी या मां की मदद करते हैं यानी काम तो महिलाओं का ही है. वे घरेलू काम को मदद का नाम देते हैं और मदद कर के एहसान जताते हैं. अपने ही घर में कोई काम करना मदद कैसे कहला सकता है?
सोचने वाली बात है कि जब परिवार और बच्चे दोनों के हैं तो पति और पत्नी दोनों को मिल कर काम क्यों नहीं करना चाहिए? खाना भी दोनों को मिल कर बनाना चाहिए. बच्चे भी मिल कर संभालने चाहिए. हमारे घरों में ऐसा कहा जाता है कि अगर महिलाएं स्वस्थ हैं तो घर का काम उन्हें खुद ही करना चाहिए. शादी के बाद अकसर सभी महिलाएं पूरी जिंदगी हर दिन खाना बनाती हैं. इस काम से उन्हें कभी छुट्टी नहीं मिलती.
मन भी लगेगा और भार भी कम होगा
क्या आप को यह नहीं लगता कि मिल कर काम करने का मजा ही अलग होता है? जब पतिपत्नी मिल कर काम कर रहे होते हैं तो उन्हें एक साथ क्वालिटी टाइम बिताने का मौका मिलता है. उन के पास समय होता है जब वे एकदूसरे से दिनभर की बातें शेयर करें. अपने औफिस में क्या चल रहा है इस बारे में डिस्कस करें. किचन ऐसी जगह है जहां आप फोन के साथ नहीं बल्कि जीवनसाथी के करीब रह सकते हैं. एकदूसरे से मीठी छेड़छाड़ और प्यारमनुहार का आनंद ले सकते हैं. कोई और डिस्टर्ब करने वाला नहीं होता.
हंसीमजाक के माहौल में मजेदार खाना बनाने के साथ मजेदार बातें भी कर सकते हैं. इस से आप का मन भी लगेगा और पत्नी का भार भी कम होगा. पति यदि ज्यादा अच्छा खाना बनाना नहीं जानते तो कम से कम पत्नी को प्याज, आलू, लहसुन और दूसरी सब्जियों की कटिंग और चौप्पिंग कर के तो दे ही सकते हैं. रोटी बनाने और खाना परोसने में भी साथ दे सकते हैं. समय के साथ वे खुद भी व्यंजन बनाना सीख ही जाएंगे.
बचपन से ही खाना बनाना सिखाया जाए तो दूसरे शहर में अकेला रहना आसान होगा. पुरुषों द्वारा किचन के काम में भागेदारी करना खुद उन के लिए भी अच्छा है. अगर बचपन से ही घर के लड़कों को किचन में घुसाया जाए और घरेलू काम करने को दिए जाएं तो जब वे पढ़ने या नौकरी करने के लिए अकेले कहीं होस्टल या कमरा ले कर रहेंगे तो सब बहुत आसान हो जाएगा. इस से वे आत्मनिर्भर बनते हैं और अपना खाना खुद बना कर चैन से रहते हैं. किसी के आसरे नहीं रहते कि खाना कोई देगा ला कर तब पेट भरेगा या मजबूरन बाहर होटल वगैरह में खाना पड़ेगा.
खाना बनाना एक आत्मनिर्भरता का गुण है. इसे एक ऐसे कौशल के रूप में देखा जाना चाहिए जो जीवनभर काम आता है. बचपन से किचन के काम की आदत बच्चों को तभी लगेगी जब वे घर के बड़ों यानी पापा, चाचा आदि को ऐसा करते देखेंगे. जब पुरुष खाना बनाते हैं तो यह न केवल उन के जीवनसाथी को सहयोग करता है बल्कि बच्चों के लिए भी एक सकारात्मक उदाहरण प्रस्तुत करता है. इस से बच्चों में भी यह भावना विकसित होती है कि घर के कामों में सभी को अपनी हिस्सेदारी निभानी चाहिए. यही वजह है कि घरेलू काम और खाना पकाने की जिम्मेदारी पुरुषों को भी उठानी चाहिए.
मजबूत हो सकती है पारिवारिक रिश्तों की नींव
देखा जाए तो खाना बनाने की कला कोई कठिन काम नहीं है. यह एक रचनात्मक और मजेदार प्रक्रिया हो सकती है जिस में पुरुष भी भागीदार बन सकते हैं. खाना बनाने में पुरुषों की भागीदारी से परिवार के सदस्यों को एकदूसरे के और करीब आने का मौका रहता है. जब सब मिल कर काम करते हैं तो आपसी सम?ा और सामंजस्य बढ़ता है. खाने की मेज पर बैठ कर एकसाथ भोजन करना और रसोईघर में मिल कर खाना बनाना पारिवारिक बंधनों को मजबूत कर सकता है. खाना बनाना एक जैंडर न्यूट्रल काम है. इस में पुरुषों की भागीदारी होनी चाहिए. हमारे समाज में पुरुषों को रसोई से दूर रखा जाता है जोकि गलत है. पुरुषों को यह बैरियर तोड़ने की जरूरत है.
बराबरी दूसरे कामों में भी
औरतों को सिर्फ किचन में बराबरी की सोच नहीं रखनी चाहिए. यह बराबरी जीवन के दूसरे पहलुओं में भी नजर आना चाहिए. मसलन, अगर पुरुष घरेलू काम कर सकते हैं तो स्त्रियां भी बाहर के काम कर सकती हैं. बैंक के जुड़े काम हों या बिल भरने का काम, जरूरी सामान की शौपिंग हो या कोई स्विच बदलना हो, नल ठीक करना हो या कील ठोंकनी हो, बिजली के तारों को जोड़ना हो या फिर छत पर जा कर टंकी देखनी हो, महिलाएं अकसर ऐसे छोटेमोटे कामों के लिए पुरुषों का मुंह ताकने लगती हैं. यह उचित नहीं.
आज की नारी इतनी पढ़ीलिखी, सम?ादार और ताकतवर है कि हर तरह के काम कर सकती है. कहीं बाहर जाना है तो खुद कार या स्कूटी ड्राइव कर के जाएं न कि पति के पीछे बैठने की आदत रखें. इसी तरह कोई भी काम हो खुद को पीछे रखने की जरूरत नहीं. स्त्री हो या पुरुष दोनों बराबर हैं. पुरुष अगर दोस्तों के साथ बाहर घूमने जाने का प्लान बना सकता है तो स्त्री क्यों नहीं? वह भी अपने ग्रुप के साथ घूम कर आए.
बच्चों के जन्म के समय अकसर औरतों को ही औफिस से छुट्टियां लेनी होती हैं ताकि वे नन्हेमुन्ने की देखभाल कर सकें. कई दफा इस चक्कर में उन्हें नौकरी से हाथ भी धोना पड़ता है. मगर क्या बच्चे केवल स्त्री के हैं? क्या पति का दायित्व नहीं बनता कि वे भी बच्चे की देखभाल करें और इस के लिए छुट्टी लें. कुछ समय स्त्री घर में रहे तो कुछ समय पुरुष. इस से दोनों को बच्चे के साथ समय बिताने का आनंद तो मिलेगा ही साथ ही स्त्री का कैरियर भी नहीं डूबेगा.
आर्थिक बराबरी
अगर स्त्री कमा रही है तो उस का अपना बैंक अकाउंट होना चाहिए. उस का अपना बैंक बैलेंस होना चाहिए. उसे जहां मन करे वहां इन्वैस्ट करे. जो मन आए वह चीज खरीदे. वह नहीं कमा रही तो भी पति के साथ उस का जौइंट अकाउंट जरूर हो. पति और पत्नी दोनों के नाम मकान हो यानी मकान का मालिक केवल पुरुष क्यों रहे? पत्नी के नाम से भी घर खरीदा जाए.
कोई लोन चुकाना है तो उसे भी दोनों मिल कर चुकाएं. कानून ने भी स्त्रियों को संपत्ति में समान अधिकार दिए हैं. प्रैक्टिकली भी इसी बात को स्वीकारा जाए. हक के साथ स्त्रियां अपने दायित्व भी निभाएं. पेरैंट्स स्त्री के हों या पुरुष के जरूरत पड़ने पर दोनों मिल कर उन की आर्थिक मदद करें, उन का खयाल रखें.
रूढि़वादी नियमों से अलग हो कर भारतीय घरों में पुरुषों को खाना बनाने और घरेलू कामों की जिम्मेदारी महिलाओं के साथ निभानी चाहिए. यह न केवल समानता और सा?ोदारी को प्रोत्साहित करेगा बल्कि घरों में महिलाओं का अवैतनिक काम का बो?ा कम करेगा. खाना बनाने की जिम्मेदारी के साथ ही दूसरे मामलों में भी समानता को बढ़ावा देना चाहिए. हमें ऐसी प्रथाओं को समाप्त करने की जरूरत है जो स्त्री को नीचा दिखाती हैं.
इस की शुरुआत हमारे बचपन से होनी चाहिए. हमारी शिक्षा व्यवस्था को भी बदलने की जरूरत है. भारतीय समाज में घर का कामकाज और खाना बनाने की जिम्मेदारी महिलाओं पर थोप दी गई है. ऐसा माना जाता है कि महिलाएं स्वाभाविक रूप से इस तरह के कामों में निपुण होती हैं. हमें मिल कर इस सदियों पुरानी सोच को बदलने की जरूरत है और अपने घर में बराबर की जिम्मेदारी निभाने की जरूरत है