बाबतपुर एअरपोर्ट से निकल कर मैं ने कैब बुक की. ‘विजय होटल’ में मैं ने अपना रूम बुक किया हुआ था. जब होटल बुक करने का समय आया था, मुझे नहीं पता क्यों मेरे हाथों ने ‘विजय होटल’ ही टाइप किया. मुझे नहीं पता क्यों ऐसा हुआ. ऐसा भी नहीं है कि मैं जानती नहीं कि मैं विजय होटल ही क्यों रुकी हूं. मैं ने यहां पिछली बार क्याक्या खाया था, मुझे तो यह भी याद है. किस के साथ खाया था, यह भी याद है. उस ने ब्लैक टीशर्ट पहनी हुई थी, यह भी याद है. मैं ने पिंक सूट पहना था, यह भी याद है. अरे, नहीं अभी आंखें नम नहीं होनी चाहिए, सालों हो गए. रोने की कोई बात नहीं है. मैं सब भूल चुकी हूं. मैं ने हमेशा की तरह दिल को समझया तो दिल हंस पड़ा कि चल, झूठी. रातदिन परेशान करती है, झूठ बोलती है कि सब भूल गई.

बनारस की 1-1 गली, महल्ला, दुकान, होटल सब तो देख रखा है. यहीं पैदा हुई हूं, पलीबढ़ी हूं, जीवन के 25 साल यहां बिता कर मुंबई पहुंची हूं. कैब से बाहर देखते हुए किसी मूवी की तरह यहां बीते पिछले साल नजरों के आगे किसी रील से भागे चले जा रहे हैं. 10 साल बाद बनारस आई हूं. मम्मीपापा रहे नहीं, अकेली संतान थी. उन के जाने के बाद क्या करने आती. उन का घर किराए पर एक अच्छे परिवार को दिया हुआ है. मेरे अकाउंट में टाइम से किराया आ जाता है. मैं ने अपनी जौब मुंबई जौइन की तो वहीं घर ले लिया. यह मुझे अब अपना शहर नहीं लग रहा है, यह उस का शहर है. मन हो रहा है कि यतिन को फोन करूं और उसे तंग करूं कि बताओ, तुम्हारे शहर में कौन आया है?

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