लेखक-  डा. अखिलेश पालरिया

पोती ने दादी के लिए खाने की थाली लगाई तो दादी रोटी का एक टुकड़ा निकाल कर बोलीं, ‘‘पहले खाने के साथ ही गौरैया भी फुदक कर पास आ जाती थी और मेरे पास ही खापी कर उड़ जाती थी जैसे मेरा और उस का कोई पुराना नाता रहा हो.’’

पोती शालिनी ने पूछा, ‘‘दादी, आज अचानक आप को गौरैया कैसे याद आ गई?’’

‘‘अरी, आज सुबह ही तो मैं ने एक गौरैया को छत की मुंडेर पर फुदकते देखा था तो मैं तुरंत स्टोर से एक कटोरी बाजरे की ले आई लेकिन वह तो न जाने कहां उड़ गई.’’

‘‘दादी, अब तो गौरैया कम ही दिखाई देती है.’’

‘‘हां, रूठ गई है वह हम मनुष्यों से... अब वह हमें अपना नहीं मानती क्योंकि हम ने उसे अपने यहां शरण देना जो बंद कर दिया है. सारे मकान पैक कर दिए हैं न. शायद लुप्त होने की कगार पर हैं हमारी ये घरेलू चिडि़यां.’’

‘‘दादी, मु?ो ही अपनी गौरैया मान लो न.’’

दादी खिलखिलाईं फिर बोलीं, ‘‘हां, है तो तू मेरी गौरैया.’’

रागिनी भीतर रसोई में दादीपोती की बातें सुन रही थी. प्लेट में गरम फुलका ला कर सासूजी की थाली में परोसा फिर बड़े क्षोभ के साथ कहा, ‘‘मां, गौरैया तो बीती बातें हो गई, आजकल तो परिवार वाले भी टांग खिंचाई में लगे रहते हैं.’’

‘‘ऐसा क्यों कह रही है बहू?’’

‘‘आज स्वप्निल जूते पहनते हुए शिकायती लहजे में कह रहा था कि मम्मी, मैं ने पारिवारिक वाट्सऐप गु्रप- ‘अपने लोग’ में अपने दोहरे शतक की जानकारी शेयर की तो कोई कुछ न बोला सिवा सुजाता मौसी के.’’

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