बढ़ती बेटी के नहाते समय उस के फोटो खींच लिए जाएं और फिर उसे ब्लैकमेल करने की कोशिश की जाए तो मातापिता के सामने गंभीर चुनौती आ खड़ी होती है. अजय देवगन और तब्बू की नई फिल्म ‘दृश्यम’ में इस खौलते विषय को उठाया गया है और साफ कर दिया है कि पुलिस व्यवस्था पर भरोसा करो ही नहीं. चाहे कुछ भी हो, खुद ही निबटो और फिर हो सके तो बच निकलो. ‘दृश्यम’ की हिम्मत पुलिस की पोलपट्टी खोलने की है, कहानी के चयन या फिल्मांकन की नहीं. देवगन और तब्बू ने अच्छा अभिनय किया है. पहले दृश्य से ले कर अंत तक पुलिस की बखिया उधेड़ी गई है कि उसे अपने पैसे, अपने रोब और अपनी पावर का खयाल है, आम नागरिक का नहीं. भारत ही नहीं, दुनिया के ज्यादातर देशों की पुलिस देश के नागरिकों को गुलाम और पराया मान कर चलती, नागरिक नहीं चाहे उन्होंने अपराध किया हो या नहीं. एक लड़की की मां पर क्या गुजरती है, कैसे वह उस ब्लैकमेलर के आगे गिड़गिड़ाती है, जो अपनी खूंख्वार इंस्पैक्टर जनरल मां की आड़ में हर तरह का उत्पात मचा सकता है. जो फिल्म में दिखाया जा रहा है वह अब घरघर में होने लगा है. हर हाथ में वीडियो कैमरा ही नहीं है, उसे सार्वजनिक करने के लिए फेसबुक, व्हाट्सऐप और दूसरी चैटिंग साइटें हैं, जिन में हाथोंहाथ चोरीछिपे या खुलेआम लिए फोटो हजारों तक पहुंचाए जा सकते हैं.
ज्यादा डरावना तो पुलिस का रवैया है. एक आम सीधा परिवार बिना वजह पुलिस अत्याचार का शिकार बनता है और इंस्पैक्टर जनरल जैसे अधिकारी अपनी कानूनी बंदिशों की परवाह किए बिना शक्ति का दुरुपयोग करते हैं, अदालतों के आदेशों की अनदेखी करते हैं और नागरिकों को अपने ही देश में गुलाम से भी बदतर तरीके से रहने को मजबूर करते हैं. अजय देवगन इस फिल्म में बेटी और पत्नी द्वारा आईजी के ब्लैकमेलर बेटे को मार डालने के बाद उन्हें कैसे बचाता है, इस का चतुराई भरा वर्णन है. यह आसान नहीं है पर तार्किक है. फिल्म को देखने से ज्यादा इस फिल्म में उठाए गए मुद्दों पर मांग करना और पुलिस पर नियंत्रण करना आवश्यक है. इसे हलके में लेना गलत होगा. परिवार किस तरह से पुलिस के जुल्मों से कुचले जा सकते हैं और वे भी महिला कांस्टेबलों और महिला आईजी के सामने, फिल्म का कथानक इस की डरावनी पोलपट्टी खोलता है. फिल्म पुलिस व्यवस्था का चित्रण है, एक थ्रिलर ही नहीं.
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