Social Issue : देश की खस्ता हो रही इकौनौमी का एक और सुबूत है कि अब प्रीमियम प्रोडक्ट्स भी छोटे पैक्स में मिलने लगे हैं. एफएमसीजी (फास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स) यानी ज्यादा बिकने वाली आम जरूरत की चीजों की खपत अब बढ़नी बंद हो गई है जबकि देश की जनसंख्या बढ़ रही है.
इन प्रोडक्ट्स को बनाने वालों ने पिछले 2 दशकों में प्रीमियम प्रोडक्ट्स बना कर गरीबों, अमीरों व सुपर अमीरों के बीच लाइनें लगानी शुरू की थीं और टूथपेस्ट जैसी चीज भी 300-400 रुपए की बिकने लगी थी. एअर कंडीशंड, अंगरेजी बोलने वाले स्टाफ वाले मौलों में खुले स्टोर चाहते ही यह थे कि वे महंगे प्रोडक्ट्स बेचें जिन पर उन का मार्जिन अच्छा हो जिस में से कुछ वे पौइंट्स के रूप में ग्राहकों को लौटा सकें.
बहुत अमीरों की तो संख्या में कमी नहीं हुई पर गरीबों और अमीरों के बीच की बिरादरी लड़खड़ाने लगी है. अच्छे पढ़ेलिखे, अपना लाइफ स्टाइल सुधारने के चक्कर वाले क्व20 की कौफी की जगह क्व150-300 कीकौफी पीने वाले अब पैसे की तंगी महसूस कर रहे हैं.
इन मिडल रिचों के खर्चे बढ़ गए हैं. गाड़ी मिड साइज की ही खरीदनी है, फ्लैट अच्छी सोसायटी में ही हो, सप्ताह में 4 बार खाना अच्छे रेस्तरां में ही हो, कपड़े, जूते ब्रैंडेड ही हों, बच्चों को महंगे प्राइवेट इंगलिश मीडियम स्कूल में ही भेजा जाए, फोन और लैपटौप महंगा ही हो. इन सब के पास ग्रौसरी के लिए पैसा कहां बचता है? अब प्रीमियम प्रोडक्ट्स खरीदने की आदत पड़ गई तो उन के छोटे पैक्स की मांग होने लगी है. छोटी फैमिली में बड़े पैक खत्म ही नहीं होते और बोतल का रंग फीका पड़ने लगता है.
अब सभी बड़ी कंपनियां महंगे रोजमर्रा के टूथपेस्ट, शैंपू, सोप, कंडीशनर, डिटर्जैंट, मसालों, क्रीमों, रैडीमेड फूड व छोटे पैक बनाने लगी हैं. इस से खपत बढ़ेगी, यह तो पता नहीं पर सर्कुलेशन बढ़ जाएगा, यह अंदाजा है.
असल में लोगों की जेबों में पैसा कम बच रहा है क्योंकि फालतू के खर्च ज्यादा हो रहे हैं. सब से बड़ा बेकार का खर्च डिजिटल मोड पर है. लोग बेबात में नया स्मार्ट मोबाइल, स्मार्ट वाच, लैपटौप, डेटा पैक, इयरबड खरीद रहे हैं. स्मार्ट बड़े टीवी पर महंगे ओटीटी प्लेटफौर्म सब्सक्राइव किए जा रहे हैं. बेमतलब के टूरिस्ट स्पौटों पर जाया जा रहा है.
यही नहीं, दकियानूसीपन फिर भी भरा है और इसलिए इंजीनियर, डाक्टर, एमबीए, लौयर्स बड़ा मोटा पैसा पैशनेबल धार्मिक आश्रमों पर खर्च कर रहे हैं. उन के लिए मैडिटेशन, योगा क्लासेज, हाई ऐंड टैंपल, और्गेनिक फूड, पिलग्रिम टूरिज्म जिस में एअर और हैलिकाप्टर राइड्स होते हैं, जम कर इस्तेमाल हो रहा है. जो पैसा सेहत के लिए सामान खरीदने के लिए खर्च होना चाहिए वह जिम मैंबरशिप में खर्च होता है.
धर्म के नाम पर मोटिवेशनल स्पीकर्स की बाढ़ आ गई है जो पर्सनैलिटी इंप्रूवमैंट के नाम पर भारी डोनेशन वसूल कर लेते हैं. गरीब लोग कुंभ जैसे मेलों में सस्ते टैंटों में साथसाथ बिस्तर लगा कर सोते हैं, अमीरों के लिए 5 स्टार सुविधाएं अलग टैंटों में दी जा रही हैं क्योंकि वे मोटी दक्षिणा देते हैं.
घरों में अमीरों और धर्म अमीरों ने अपने घरेलू मंदिर बना लिए हैं जहां रातदिन दीए जलते रहते हैं. ये इग्नोरैंट इररैशनल रिच यंग भी गिफ्ट में गणेश, शिव, लक्ष्मी के ऐब्स्ट्रैक्ट आर्ट वाले महंगे सिंबल बांटते फिरते हैं. पैसा तो लिमिटेड है. जरूरत पर खर्च करो या धर्म पर बरबाद करो.
धर्म पर ही नहीं, यही लोग अपने खाली समय में कुछ पढ़ने की जगह घंटों महंगी शराबों पर भी खर्च करते हैं. यह खर्च लाइफस्टाइल का हिस्सा बन गया है. रात देर तक पीते रहने वाले सुबह पूजापाठी बन जाते हैं और उस के बाद हैल्थ कौंशस हो कर ब्रैंडे़ड जूते और वाकिंग ड्रैस पहन कर निकलते हैं.
जो लोग दोगलेपन में जीते हैं उन से पैसा बचाने की उम्मीद नहीं की जा सकती. उन के क्रैडिट कार्ड हमेशा लिमिट क्रौस करते रहते हैं. पैसा हो तो घर का सामान खरीदेंगे न.
अच्छा लाइफस्टाइल जरूरी है पर कल के लिए बचाना ज्यादा जरूरी है. ये युवा रिच कल का जिम्मा तो धर्म और शेयर बाजार पर डाल देते हैं. अगर इन की गिनती फिर भी काफी दिख रही है तो इसलिए कि इस यंग रिच क्लास में काफी लोग ऐसे हैं जिन के पेरैंट्स ने कौड़ीकौड़ी जमा कर कोई मकान, जमीन खरीदी थी और अब उस का दाम बढ़ गया है. वे उसी पैसे पर फूल रहे हैं. मांबाप भी अंधविश्वासी थे पर महल्ले के मंदिर में कुछ अपने 2-4 रुपए चढ़ा कर काम निकाल लेते थे, आज के युवा स्टाइल में 20 मील दूर बने विशाल मंदिर में जाते हैं क्योंकि मांबाप की खरीदी या बनाई संपत्ति का दाम बढ़ गया है.
जो पैसे वाले दिख रहे हैं, उन में से दो-तिहाई इसी तरह के हैं. इन की हैसीयत की पोल अब खुल रही है.