शहरों के बढ़ते आकार और आबादी ने देश भर में दलालों का एक बड़ा वर्ग तैयार कर दिया है, जो किराए पर मकान ढूंढ़ने की समस्या को हल करता है. 20-25 साल पहले की तरह आज भी मनमाफिक मकान किराए पर हासिल करना आसान काम नहीं है. खासतौर से उस हालत में, जब परिचय का दायरा और संपर्कों का संसार दोनों छोटे होते जा रहे हैं मकानमालिक को आजकल ऐसा किराएदार चाहिए, जो वक्त पर किराया दे और बेवजह का झमेला खड़ा न करे. रैंटल सर्विसेज चलाने वाले ब्रोकर इस मानसिकता को बेहतर समझते हैं और यह भी जानते हैं कि जिसे किराए के मकान की जरूरत है, वह अकसर अपनी इच्छाओं और जरूरतों से समझौता करने को तैयार हो जाता है. वजह है किसी भी नए शहर में किराए का मकान ढूंढ़ना बेहद मुश्किल काम है.बैंक अधिकारी बी.के. सक्सेना मई, 2010 में दिल्ली से तबादला होने पर भोपाल आए, तो रहने की समस्या उन के सामने मुंह बाए खड़ी थी. दिल्ली से कुछ परिचितों से उन के परिचितों के फोन नंबर भी वे लाए थे. बातचीत कर के परेशानी बताई तो सभी ने हाथ खड़े कर दिए. एक ने तो साफसाफ कह दिया कि आप हमारे यहां खाना खा लीजिए, जरूरत पड़े तो वाहन ले जाइए, दूसरा कोई सामान भी ले लीजिए, पर किराए के मकान की जिम्मेदारी मत सौंपिए. भोपाल में मकानों की कमी नहीं है पर हमारे पास वक्त की बेहद कमी है.
मिला मनपसंद मकान
हफ्ता भर होटल में गुजारने के बाद बी.के. सक्सेना को ज्ञात हो गया कि बगैर दलाल की मदद के उन की समस्या का हल नहीं होने वाला. लिहाजा, उन्होंने एक दलाल को मकान ढूंढ़ने का काम सौंप दिया. दूसरे दिन ही दलाल उन के होटल में हाजिर था कि चलिए अपनी जरूरत के मुताबिक 4 मकान देख लीजिए, जो पसंद आए उसे फाइनल कर लीजिए. सक्सेनाजी का बैंक व्यावसायिक इलाके एम.पी. नगर में था और उन्हें महज 1 कमरा 3 हजार रुपए महीने तक का चाहिए था. दलाल के साथ वे गए तो पहला ही मकान उन्हें भा गया, जो बैंक से महज 2 किलोमीटर दूर था और किराया भी 3 हजार रुपए ही था. मकानमालिक ने उन से ज्यादा बात नहीं की, क्योंकि दलाल ने सारी शर्तें पहले ही समझा दी थीं कि 2 महीने का किराया अग्रिम देना पड़ेगा. 11 महीने का करार स्टांप पेपर पर करना होगा और अगर इस अवधि के बाद भी रहना है तो सालाना 10 फीसदी की दर से किराया बढ़ेगा. मकान देख कर बी.के. सक्सेनाजी ने हां कर दी और सारी शर्तें भी पूरी कर दीं. अखरा तो केवल यह कि दलाल को 1 महीने का किराया3 हजार रुपए बतौर फीस देना पड़ा. 1 साल पूरा होने को आ रहा है. सक्सेनाजी सुकून से किराए के मकान में रह रहे हैं, लेकिन कभीकभार उन के मन में आ ही जाता है कि खुद भागदौड़ कर लेते तो 3 हजार रुपए बच जाते. जाहिर है, सक्सेनाजी को लग यह रहा है कि एक छोटे से काम की ज्यादा फीस उन्हें देनी पड़ी पर बारीकी से देखें तो वे काफी सस्ते में निबट गए. वक्त पर मकान नहीं मिलता तो होटल के दड़बेनुमा कमरे के 600 रुपए रोज उन्हें देने पड़ते और मकान ढूंढ़ने में रोजाना 100-200 रुपए आटोरिकशा में खर्च होते. इस पर भी मकान मिल ही जाता, इस बात की भी कोई गारंटी नहीं थी.
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