‘अपने ही घर में बेगाने होते बुजुर्ग’ इस शीर्षक के अंतर्गत एक लेख पढ़ा तो उसे पढ़ कर लगा कि बुजुर्गों को अपने 40-45 साल के प्रौढ बेटेबहुओं की समस्याओं पर भी विचार करना चाहिए. वे आज के मशीनी युग में दौड़ते बच्चों की तरफ भी देखें कि वे अपने रिटायर्ड मातापिता की सुनें या अपने बच्चों की फीस, कापीकिताबें आदि जुटाएं. 60-65 साल के मांबाप के लिए समय निकालें या अभिभावक मीटिंग अथवा बौस की आकस्मिक मीटिंग अटैंड करें. आज जिस प्रकार समाज में दहेज प्रथा कानून का दुरुपयोग हो रहा, लड़की की मौत किसी भी कारण से हो दोष लड़के वालों पर ही थोपा जाता है, ठीक उसी तरह रिटायर्ड मातापिता भी बच्चों को भावनात्मक रूप से प्रताडि़त करते हैं. वे अपना सारा दायित्व उन पर डाल देते हैं. मैं सब्जी क्यों लाऊं? मैं दूध क्यों लाऊं? मैं तो अपने सारे दायित्व पूरे कर चुका हूं. हमारे तो अब आराम करने के दिन हैं. बहुत खट चुके अब तो हम आराम से रहेंगे. हमें तो इतनी पैंशन मिलती है कि आराम से कहीं भी रह सकते हैं.

असंवेदनशील भाषा का प्रयोग न करें

यदि संयोगवश बेटे की आमदनी पिता से कम है तब तो बेटे पर आफत ही समझो. कभीकभी बुजुर्ग जानेअनजाने ऐसी असंवेदनशील भाषा का प्रयोग कर बैठते हैं, जो बेटे को ऐसी स्थिति में पहुंचा देती है कि वह हंसे या रोए. यदि बुजुर्ग अपना विश्लेषण करें तो पाएंगे वे भी बच्चों को बहाना बनाबना कर टालते रहे हैं. बच्चों ने कहा कि पापा बाहर खाने चलेंगे तब उन का जवाब होता था कि बेटा छुट्टी वाले दिन चलेंगे. उसी प्रकार यदि बुजुर्ग ने अपने बेटे से कहा कि डाक्टर के पास चलना है और यदि बेटे ने जवाब में कहा कि पापा 2 दिन रुक जाओ तो उन्हें भी मान लेना चाहिए, क्योंकि हो सकता है बेटे पर वास्तव में ही काम का बोझ हो. 2 दिन बाद भी डाक्टर के पास जाया जा सकता है. अत: बुरा मान कर अपना तथा बेटे का मूड खराब न करें. अपनी परिपक्वता का परिचय दें. जब बच्चे पढ़ते थे तो आप द्वारा टीवी बंद रखने की हिदायत दी जाती थी. उसी प्रकार यदि पोतों के पेपर के समय बहू ने टीवी की आवाज धीमा करने को कह दिया तो बुरा मानने की आवश्यकता नहीं है.

सुबहसुबह बेटे ने कहा कि पापा समाचारपत्र पहले मैं देख लूं, आप तो घर में ही रहेंगे, बाद में पढ़ लीजिएगा. बस बुरा मान गए. लो अब पेपर भी मैं सुबह नहीं पढ़ सकता हूं. यदि किसी दिन बहू ने कह दिया कि मम्मीपापा आज आप 2 बजे ही लंच कर लेते तो अच्छा होता, क्योंकि आज मुझे बाजार जाना है. बस बौखला गए कि अब हमें तो इन के हिसाब से खाना खाना होगा, भूख हो या न हो बस खा लो. एक महोदय की बहू बहुत अच्छी है, परंतु उसे किसी को नमस्ते करना पसंद नहीं है. वे महोदय इसी बात पर बड़बड़ाते रहते हैं कि हमारी बहू को किसी को नमस्ते कहने या पैर छूने आदि से कोई मतलब ही नहीं है.

हमारी कालोनी में रमेशजी के पास कार है. उन का बेटा जिसे चलाता है. एक बार उन के बेटे ने अपनी पत्नी से मजाकमजाक में कहा कि पैट्रोल का दाम बढ़ गया है अत: जिसे कहीं जाना हो पैट्रोल वही भराएगा. यह सुनते ही रमेशजी एकदम बिगड़ गए कि मेरी ही कार और मैं ही पैट्रोल भराऊं? आज सारा समाज 40-45 साल के बेटों के दर्द से अनजान है. हर जगह बुजुर्ग ही बेचारे लगते हैं.

सहयोगात्मक रवैया अपनाएं

बुजुर्गों को यह सोचना चाहिए कि उन्होंने अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जी ली. अब उन के बेटेबहुओं को अपने हिसाब से जिंदगी जीने का हक है. बुजुर्ग रिटायरमैंट के बाद पैसे और पद के मद से बाहर आ कर बच्चों के साथ सहयोगात्मक रवैया अपनाएं. बच्चों की समस्याओं और उलझनों को समझें. यदि बुजुर्ग अपने बच्चों के व्यवहार को अपनी सकारात्मक सोच के साथ देखेंगे तो जिंदगी बोझिल नहीं, खुशहाल लगेगी. जब बुजुर्ग को लगे कि बच्चे उन्हें अनदेखा कर रहे हैं, तो वे उन की समस्या समझने का प्रयास करें. यदि लगता है कि वे वास्तव में अनदेखा कर रहे हैं, तो सहजता से, शांत वातावरण में अपने मन की ग्रंथि खोलें. स्वयं को हलका और सुखी पाएंगे. प्राचीनकाल में वानप्रस्थ आश्रम का यही उद्देश्य था कि बुजुर्ग संसार में रह कर भी मोहमाया से विरक्त हों. गृहस्थ जीवन के अपने अनुभवों को अपनी दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित करने का यही समय होता है. अपने अहं का त्याग करें. परंतु साथ ही स्वाभिमान भी बनाए रखें. अहं और स्वाभिमान दोनों के अंतर को पहचानें. आज ज्यादातर बेटेबहू दोनों ही नौकरी करते हैं. ऐसे में बुजुर्गों को यह अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि बहू सुबहशाम उन की सेवा करे यानी समय के साथ चलें. बहू अवश्य आप को सम्मान देगी.

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