किसी व्यक्ति के कैंसर का पता चलते ही उस की जिंदगी तहसनहस हो जाती है. जान की आफत बनी इस बीमारी और लंबे समय तक चलने तथा व्यथित कर देने वाले इस के इलाज का सामना करते हुए मरीज के मन में कई सारे सवाल आने लगते हैं. क्या मेरी जिंदगी यहीं खत्म हो जाएगी? क्या कोई उम्मीद है जीवन की? मेरे इलाज के विकल्प क्या हो सकते हैं? मेरे कैंसर की पुनरावृत्ति की कितनी संभावना हो सकती है? इन सब से भी अहम सवाल यह कि क्या मुझे कीमोथेरैपी भी करानी पड़ेगी? कैंसर एक ऐसी खतरनाक बीमारी है, जिस के बारे में अच्छी जानकारी रखने वाले सहित बहुत सारे लोग समझते हैं कि कीमोथेरैपी ही एकमात्र उचित समाधान है. कीमोथेरैपी के जरीए कैंसर की कोशिकाओं को मारने के लिए शरीर के अंदर इंटैंसिव टौक्सिन (शक्तिशाली विष) डाला जाता है. यह टौक्सिन सिर्फ कैंसर कोशिकाओं को ही नहीं मारता, बल्कि स्वस्थ कोशिकाओं को भी खत्म कर देता है. कुछ मरीजों, खासकर बुजुर्ग मरीजों के शरीर कीमोथेरैपी के हमले सहने में सक्षम नहीं होते हैं और इस के साइफ इफैक्ट्स के कारण उन की मौत हो जाती है. यानी कैंसर के कारण जितने दिनों में उन की मौत होती है, उस से पहले ही कीमोथेरैपी कराने में उन की जान चली जाती है.

कुछ मामलों में कैंसर बहुत धीरेधीरे फैलता है. मसलन, प्रोस्टेट ग्लैंड के कैंसर मामले में मरीज के सुझाए गए लाइफस्टाइल को अपनाने से ही यह बीमारी उस का पीछा छोड़ देती है. ऐसे मामले में कई बार मरीजों को 20 साल तक जिंदा रहते देखा गया है. लेकिन हम यह नहीं जान पाते कि किस तरह के कैंसर में किस तरह का इलाज कारगर होगा. रोग के प्रकार को भांपने में असमर्थ डाक्टर अभी तक सभी मरीजों का इलाज अंधेरे में तीर चलाने की तरह ही करते हैं. लेकिन अब कुछ नए उल्लेखनीय जीन टैस्ट के कारण डाक्टरों के अंधेरे में तीर चलाने के तौरतरीकों में बदलाव आ सकता है. इस तरह की जांचों के बाद अब उच्च स्तरीय परिशुद्धता यानी ऐक्यूरेसी के साथ कैंसर की पुनरावृत्ति संबंधी आकलन संभव हो सकता है और यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इंटैंसिव इलाज की जरूरत है या नहीं.

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