पत्नी पीडि़त पतियों की संस्था से एक पैंफलेट आया था, जिस में छपा था - हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं. घर व महल्ले की तो बात छोड़ो, अब तो चौराहे, औफिस में भी पति सुरक्षित नहीं हैं. इस ज्वलंत समस्या पर एक गोष्ठी का आयोजन संस्था द्वारा किया जा रहा है. संस्था के सदस्य पूरी तैयारी के साथ आएं और सदस्य बनने के इच्छुक विचारों के साथ फीस भी ले आएं. नए सदस्यों का तहेदिल से स्वागत है.

मेरा दिल तड़प गया. कब से इस संस्था का सदस्य बनने के लिए बेकरार था पर श्रीमतीजी इजाजत ही नहीं दे रही थीं. उन्हें इस बात के लिए मनाना बड़ी टेढ़ी खीर था. जबकि पत्नियों से त्रस्त पति में मेरा नाम तो शीर्ष पर आना चाहिए. मैं बेचारा पत्नी का मारा. पता नहीं क्या खिलापिला व सिखापढ़ा कर भेजा है इन के घर वालों ने इन्हें मेरे पास. जब से आई हैं खून चूस रही हैं मेरा. ‘ये लाओ वो लाओ’, ‘इस के पास ऐसा, उस के पास वैसा’, ‘मुझे भी ये चाहिए वो चाहिए’, ऐसी बातें रोज सुनो और सुनने पर कुछ न कहो, तो ताने व्यंग्यबाण उठतेबैठते झेलो. उन का रवैया मेरे प्रति तो ऐसा रहता है जैसे मैं पति न हो कर कोई जिन्न हूं यानी वे फरमाइशें करें तो मैं कहूं, ‘जो हुकुम मेरे आका’ और उन की सारी फरमाइशें पूरी हो जाएं. मेरा मन रोष से भर उठा. मैं ने सोच लिया कि मैं अब पत्नी के दंशों को और नहीं सहूंगा. पत्नी पीडि़त पतियों की इस संस्था का सदस्य बन पत्नियों के अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाऊंगा. सब से पहले तो आज की इस गोष्ठी के लिए एक विचारोत्तेजक परचा तैयार करूंगा. उसे मंच पर पढ़ूंगा और पत्नियों के अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाऊंगा.

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