बीती 28 सितंबर को भोपाल की प्रशासन अकादमी में काफी गहमागहमी थी. इस दिन प्रदेश भर के आईएएस अधिकारी यहां जमा थे. मौका था अपनी संपत्ति का ब्योरा देने का. इस बाबत दिल्ली से आए डीओपीटी के आला अफसर इन अफसरों से कह रहे थे कि हर हाल में 15 अक्तूबर, 2015 तक सभी आईएएस अधिकारियों को अपनी व अपने परिजनों की चलअचल संपत्ति का विवरण देना अनिवार्य है. संपत्ति का ब्योरा न देने वाले अफसरों पर लोकपाल लोकायुक्त कानून, 2013 के तहत काररवाई करते हुए उन्हें पदोन्नति से वंचित किया जा  सकता है. केंद्रीय प्रतिनियुक्ति तक का मौका उन से छिन जाएगा. इस मीटिंग में राज्य के आईएएस अधिकारियों ने कई उलझे पर दिलचस्प सवाल डीओपीटी अफसरों से किए. सब से दिलचस्प सवाल राज्य के वरिष्ठ आईएएस अधिकारी और वाणिज्यिक कर विभाग के प्रमुख सचिव मनोज श्रीवास्तव ने किया, ‘‘मेरी पत्नी अपने गहनों का ब्योरा नहीं देना चाह रही. उसे ऐसा करने का हक भी है. मैं उसे इस बाबत मजबूर नहीं कर सकता. ऐसे में आप बताएं मैं अपने पूरे परिवार की संपत्ति का ब्योरा कैसे दूं?’’ जायदाद से संबंध रखते हुए दूसरे कई सवालों की तरह डीओपीटी के अधिकारी मनोज श्रीवास्तव के सवाल का भी संतोषजनक जवाब नहीं दे पाए. लेकिन जल्दी ही यह चर्चा जरूर होने लगी कि गहने पत्नी की जायदाद हैं. उन पर उस का मौलिक अधिकार है. हम किसी कानून के तहत क्यों उस की प्राइवेसी उजागर करें? सरकार को इस कानून में बदलाव करना चाहिए.

इन आईएएस अधिकारियों की मंशा भले ही हर साल की तरह अपनी जायदाद का ब्योरा देने से बचने की रही हो, पर पत्नी के गहनों व जायदाद के मसले पर बहस की बहुत गुंजाइश है. डीओपीटी के अफसरों को उलझाने में कामयाब रहे मनोज श्रीवास्तव का पत्नी की जायदाद और गहनों से तअल्लुक रखने वाला सवाल जल्द ही बड़े पैमाने पर तूल पकड़ने वाला है, पर इस बार मौका सरकार को अपनी जायदाद का ब्योरा देने का नहीं, बल्कि बीती 9 सितंबर को सरकार द्वारा जारी की गई गोल्ड मानेटाइजेशन स्कीम (जीएमएस) का है. वित्तमंत्री अरुण जेटली के मुताबिक इस योजना को केंद्रीय कैबिनेट बीती 9 सितंबर को मंजूरी देते हुए इस का ब्योरा जारी कर चुकी है. इस योजना से कैसे महिलाओं को नुकसान होंगे, यह जानने से पहले जीएमएस पर एक सरसरी नजर डालना जरूरी है.

यह है योजना

गोल्ड मानेटाइजेशन योजना में अब ग्राहक पैसे की तरह सोना भी जमा कर सकेंगे. यह सोना सिक्के, बिस्कुट और ज्वैलरी की शक्ल में हो सकता है. सोना जमा करने के लिए बैंक में गोल्ड सेविंग खाता खुलवाना जरूरी है. मोटे तौर पर इस के 2 बड़े फायदे अरुण जेटली अभी गिना रहे हैं कि एक निश्चित अवधि के बाद जमा सोने के बाजार मूल्य पर ब्याज खाता धारक को मिलेगा और इस ब्याज पर आयकर नहीं लगेगा. यह ब्याज कितने फीसदी होगा यह सरकार ने अभी उजागर नहीं किया है पर उम्मीद है कि यह बहुत ज्यादा नहीं होगा. फिक्स डिपौजिट के ब्याज के बराबर ही होगा.

गोल्ड सेविंग अकाउंट में ग्राहक 1 से ले कर 15 साल तक जितना चाहे सोना जमा कर सकता है. लेकिन 3 साल बाद ही इस पर ब्याज मिलेगा. अगर परिपक्वता से पहले सोना निकाला जाता है तो उस पर एफडी की तरह पैनल्टी लगेगी. सोना जमा करते वक्त ग्राहक को यह बताना जरूरी होगा कि वह परिपक्वता के वक्त सोना ही चाहेगा या पैसा. अगर पैसा चाहेगा तो उस समय के सोने के भाव के अनुसार उसे राशि दे दी जाएगी. साफ दिख रहा है कि सारे नुकसान और जोखिम ग्राहक के हिस्से में सरकार डाल चुकी है. जमा किए गए सोने की शुद्धता की जांच साहूकार या स्वर्णकार की तरह बैंक भी कराएगा यानी खोट होगी तो उस के पैसे कट जाएंगे. तय है ज्वैलरी इस की लपेट में ज्यादा आएगी जो आमतौर पर 20 या 22 कैरेट की होती है.साफ यह भी दिख रहा है कि योजना में खोट ज्यादा हैं, खूबियां कम. एक तरह से बैंक और सरकार अब सोना गिरवी रखने का काम करेंगे, जिस का मकसद घरों में पड़ा सोना निकलवाना है ताकि सरकार ज्यादा से ज्यादा फायदा उठा सके. योजना में साफतौर पर यह भी कहा गया है कि सरकार या बैंक चाहें तो जमा सोने के सिक्के भी बना सकते हैं और ज्वैलर्स को बेच भी सकते हैं. रिजर्व बैंक औफ इंडिया अपना स्वर्ण भंडार भी जमा सोने से बढ़ा सकता है.

महिलाओं के हक पर डाका

महिलाओं का स्वर्णप्रेम किसी सुबूत का मुहताज कभी नहीं रहा. तमाम सर्वे, आंकड़े और अंदाजे बताते हैं कि देश में पड़े सोने का 70 फीसदी हिस्सा गहनों की शक्ल में है, जो मूलतया महिलाओं की संपत्ति है. शादी के वक्त उन्हें मायके व ससुराल दोनों पक्षों से सोना उपहार में मिलता है. कानून भी इसे स्त्रीधन मानता है यानी सोने की मालकिन महिला होती है. पर यह कहने और महिलाओं को बहलाने भर की ही बात है. सोना भी दरअसल पुरुषों का ही होता है. महिला तो उस की चौकीदार होती है. उस का शरीर और अलमारी सोने को सुरक्षित रखने के उपाय हैं, जो सदियों से चलन में हैं. सामाजिक और पारिवारिक समारोहों में उसे सोना पहना कर यह जता दिया जाता है कि देखो हमारी बहू के पास इतने गहने हैं और उसी के आधिपत्य में हैं. पर हकीकत कुछ और है. अधिकांश घरों में ज्वैलरी की या तो सतत निगरानी की जाती है या फिर सासससुर इसे रख लेते हैं और किसी फंक्शन, पार्टी के वक्त बहू को पहनने को दे देते हैं, फिर वापस ले लेते हैं.

भोपाल की एक समाज सेविका माधुरी की मानें तो उन्हें शादी के वक्त उपहार में करीब 400 ग्राम सोना दोनों पक्षों से उपहार में मिला था जो धीरेधीरे कब सास ने अपने कब्जे में ले लिया, उन्हें पता ही नहीं चला. माधुरी ने भी इसे अन्यथा नहीं लिया न ही ऐतराज जताया क्योंकि समारोहों में जाने से पहले गहने उन्हें पहनने को दे दिए जाते थे. व्यवसायी ससुर को एक बार घाटा हुआ तो यह सारा सोना बेच डाला गया. इस पर माधुरी स्वाभाविक रूप से आहत हुईं. वे कहती हैं,  ‘‘अगर घर में जरूरत थी तो बेचने में मैं कोई ऐतराज नहीं जताती पर मेरे सोने को बेचने से पहले मेरी मंजूरी ली जानी चाहिए थी जो नहीं ली गई. अब मेरे पास क्या रह गया? बदले में आर्टिफिशियल ज्वैलरी दे दी गई. पति से शिकायत की तो उन्होंने घर की जरूरत और प्रतिष्ठा का हवाला देते हुए कहा कि जैसे ही पैसे आएंगे फिर बनवा देंगे. बेकार हल्ला मचाने से क्या फायदा? इस से घर की बदनामी ही होगी.

यानी सोना महिलाओं का होते हुए भी उन का नहीं होता. इस की एक बेहतर मिसाल इन दिनों स्टार प्लस चैनल पर प्रसारित हो रहे धारावाहिक ‘मेरे अंगने में…’ दिखती है. यह कहानी मुगलसराय के मध्यवर्गीय कायस्थ परिवार की है, जिस में चालाक बूढ़ी सास की निगाहें बहू के सोने पर रहती हैं और वे इसे अपनी बेटी को दिलाने की साजिश रचती रहती हैं. दरअसल, यह कहानी हर दूसरे घर की है, जो आमतौर पर सामने नहीं आ पाती और आती भी है तो विवाद या विपत्ति के वक्त, जिस में सोने की असल मालकिन महिला के अपना ही सोना हासिल करने में पसीने छूट जाते हैं. भोपाल के एन.एच. 12 क्लब की अध्यक्षा अंशु गुप्ता बताती हैं कि सामाजिक चमकदमक और वास्तविकता में काफी फर्क है. महिलाएं ज्वैलरी की शौकीन होती हैं, यह सच है लेकिन इस पर हक उन का नहीं होता. घर के पुरुष जब चाहें इसे बेच देते हैं या गिरवी रख देते हैं. फिर ऐसे में यह महिलाओं की मिल्कीयत कहां रही?इशारा साफ है कि महिलाओं की आर्थिक स्थिति और हैसियत दोनों ठीक नहीं हैं. विपत्ति में खासतौर से पति की असमय मौत के बाद गुजरबसर के लिए सोना ही किसी महिला का बड़ा सहारा होता है. लेकिन इसे अगर पहले ही ठिकाने लगा दिया गया हो या हड़प लिया गया हो तो विधवा के पास पैसों के नाम पर कुछ नहीं रह जाता. इसलिए वह खुद को असहाय और निर्बल महसूस करती है.

तलाक के अधिकांश मामलों में सोना विवाद की एक बड़ी वजह बनता है. लेकिन कानूनी दबाव के चलते वर पक्ष इसे वधू को लौटाने को बाध्य रहता है. इस में भी पत्नी को यह साबित करने में कड़ी मशक्कत करनी पड़ती है कि उसे कितना सोना विवाह के समय उपहार में मिला था.

बढ़ेगी विपत्ति

दरअसल, महिलाओं के स्वर्णप्रेम के पीछे शौक कम असुरक्षा की भावना ज्यादा रहती है. पति अगर बेवक्त चल बसे तो पास रखा सोना ही उस के काम आता है. पति या पुरुषों की नजर में यह सोना एक तरह की पारिवारिक जमा पूंजी होता है. 46 वर्षीय रश्मि जैन की मानें तो करीब 10 साल पहले उन के दुकानदार पति का देहांत हुआ तो उन की जिंदगी में अंधेरा छा गया. हमदर्दी सभी ने दिखाई, पर जल्द ही असलियत सामने आ गई. आर्थिक मदद किसी ने नहीं की. ऐसे में उन का लगभग 1 किलोग्राम सोना काम आया जिसे बेच कर उन्होंने अपना व्यवसाय शुरू किया. आज दोनों बच्चों की परवरिश करते हुए वे उन्हें बेहतर तालीम दिला रही हैं और खुद भी आत्मविश्वास से लबरेज हैं. ऐसा इसलिए कि सोना उन के पास था. ससुराल वालों ने चालाकी दिखाते हुए जायदाद में से रश्मि को हिस्सा नहीं दिया. रश्मि बताती हैं, ‘‘घर से अलग नहीं किया यही एहसान काफी था वरना ससुर की क्व3 करोड़ की जायदाद में मेरा तो लगभग क्व50 लाख का हिस्सा बनता है.’’जाहिर है कोई भी विधवा ससुराल वालों से विवाद नहीं चाहती, क्योंकि इस का खमियाजा भी उसे ही भुगतना पड़ता है. होशंगाबाद की एक विधवा सुषमा सक्सेना कहती हैं, ‘‘पति की मौत के बाद ससुराल वालों ने सारा सोना हड़प लिया, जिस की कीमत क्व15 लाख के करीब थी. पति की मौत से मैं टूट गई थी, इसलिए अपना यह हक नहीं ले सकी.’’

जीएमएस का इन सामाजिक हालात से गहरा तअल्लुक है. अब होगा यह कि महिलाओं से सीधे सोना छीनने की हिम्मत न कर पाने वाले पुरुष उसे गोल्ड सेविंग अकाउंट में रखेंगे यानी स्वीकृत और आभिजात्य तरीके से छीन कर बेचेंगे, क्योंकि गहनों को पोटली में दबाए सुनार या साहूकार के पास जाने की उन की झिझक खत्म हो जाएगी. मसौदे में कहीं इस बात का उल्लेख सरकार ने नहीं किया है कि अगर जमा किया जा रहा सोना महिला का है, तो खाता उसी के नाम से खोला जाए या उस से सहमति पत्र लिया जाए. जिस से उस का आर्थिक हित प्रभावित न हो. बारीकी से देखा जाए तो इस योजना ने सोने का मालिक पुरुषों को बना दिया है. विपत्ति और जरूरत के वक्त जो सोना महिला के काम आना चाहिए वह बैंक में पड़ा होगा और पुरुष के नाम हुआ तो बैंक या सरकार उसे थाल में सजा कर वापस नहीं कर देगी. तमाम कठिन औपचारिकताएं महिला को पूरी करनी होंगी. उस के बाद भी वह अपना सोना हासिल कर पाएगी इस की गारंटी नहीं. कोई वजह नहीं कि जीएमएस को सूदखोरी का सरकारी संस्करण न कहा जाए.

अभी भी महिलाओं के पास या उन के नाम संपत्ति न के बराबर होती है. उन का जो कुछ भी होता है वह उन के पास रखा सोना होता है. यह भी इस योजना के नाम पर छिनेगा तो हालात क्या होंगे, सहज अंदाजा लगाया जा सकता है. पुरुषप्रधान भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति नाममात्र की सुधरी है. हालत तो यह है कि नौकरीपेशा महिलाओं का अपनी ही सैलरी पर पूरा हक नहीं होता. वे कौस्मैटिक, मोबाइल, पैट्रोल और दूसरी जरूरत पर ही खर्च कर पाती हैं. फिर भी चुप रहती हैं, क्योंकि जिंदगी आखिरकार सुकून से कट रही होती है. मगर अब यह सुकून कभी भी छिन सकता है. ऐसे में उन्हें सोना अपने कब्जे में ही रखना चाहिए, जिस से भविष्य आर्थिक तौर पर सुरक्षित रहे. उपहार में मिला सोना उन की संपत्ति है. जब एक आईएएस अफसर को उस की पत्नी अपने गहनों की बाबत नहीं बता रही है तो तय है वह अपने आर्थिक अधिकारों के प्रति जागरूक है. यह समझदारी हर महिला को दिखानी होगी नहीं तो यह स्कीम उन के हक पर डाका डालने के लिए डाकू बन कर लागू हो चुकी होगी, जिस का फायदा उठाते हुए पुरुष उन्हें बहलाएंगेफुसलाएंगे और इस पर भी न मानीं तो प्रताडि़त भी कर सकते हैं.

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