नरेंद्र मोदी के लिए केवल उस खिचड़ी की परेशानी ही नहीं है, जो भारतीय जनता पार्टी के बूढ़े बावर्चियों के बगावत के भगौने में पक रही है, उन की सरकार की परेशानी दाल की भी है जिस के दामों के गिरने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे. रबी की फसल की बोआई में भारी कमी हो गई है और बारिश की कमी की वजह से पानी रे पानी अब भाजपा सरकार को भी चिल्लाना पड़ रहा है. दालों की बोआई का इलाका जो कर्नाटक और महाराष्ट्र में पड़ता है सिकुड़ गया है और उत्तर भारत में जहां चना बोया जाता है, मानसून के जल्दी चले जाने के कारण सूखा रह गया है.
कुल मिला कर यह समझ लीजिए कि दाल में अब कंकर ही दिखेंगे और न केवल भारतीय जनता पार्टी की सरकारों को बल्कि दूसरी पार्टियों की राज्य सरकारों को भी दांत बचा कर रखने होंगे. खाने में प्रोटीन के मुख्य स्रोत पर तो कुदरत का कहर पड़ रहा है और दूसरे स्रोत मीट पर भगवा झंडेधारियों का, जो मीट खाने को वोटों में बदलने की खातिर सिर फोड़ने में लगे हैं. दोनों मामले सरकार के लिए आफत साबित होंगे पक्का है, क्योंकि पार्टियां जब चुनाव लड़ती हैं तो पिछली सरकार को महंगाई के लिए कोसती हैं पर अगर सत्ता उन के हाथ में आ जाए तो उन्हें पता चलता है कि महंगाई के लिए कुशासन नहीं और बहुत सी चीजें जिम्मेदार हैं. दालों की महंगाई के कारण बिहार में ‘हरहर मोदी’ ‘अरहर मोदी’ बन कर इस बुरी तरह हारे कि उन का चेहरा लटक गया है. और चाहे लंदन जा कर वे बड़ीबड़ी बातें कर आए हों, देश में उन की दाल गलने वाली नहीं है यह लग रहा है. पहले उन्हें दल की दाल में से कंकरों को चबाना पड़ेगा और फिर जनता को दाल के भाव का अर्थशास्त्र समझाना होगा. काश योगासनों में दालासन भी होता जिस से पार्टी के बुजुर्गों को भी और जनता को भी दाल की जगह दाल के पानी को पी कर काम चलाने के लिए तैयार करा जा सकता.
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