उसे अपनी मातृभूमि में खुली सांस भी बड़ी मुश्किल से मिलती है. उस का पूरा वजूद ही जैसे काले कपड़ों के पीछे कस कर बांध दिया गया है. बुनियादी हक होते हैं, आज भी उसे यह एहसास नहीं है. बहुत ही मामूली सुखसुविधाओं के लिए भी उसे खुली सड़क पर चाबुक के वार झेलने पड़ते हैं. सिपाहियों के अत्याचार सहने पड़ते हैं.

लेकिन फिर भी वह हारती नहीं है, थकती नहीं है, पीछे नहीं हटती है. उस का विद्रोह कायम रहता है. कठोर राह पर, अंधेरी राह पर, लगातार.

सऊदी अरब अमीर देश है. इस खाड़ी देश में संपन्नता आई, लेकिन संस्कृति पीछे ही रही. ज्ञान, विकास के दरवाजे कभी खुले ही नहीं. संस्कृति संस्कार से ही आती है. शिक्षा का संस्कार, ज्ञान का संस्कार, आचारविचारों का संस्कार. इसी संस्कार से संस्कृति समृद्ध होती है, खिलती है, फूलती है. जिस देश में समृद्धि के साथसाथ संस्कृति भी टिकती है उस देश के विकास को कोई भी नहीं रोक सकता.

यह संस्कृति हमेशा से ही स्त्रीशक्ति के हाथों में हाथ डाल कर चलती है. जिस देश में, जिस घर में स्त्री का सम्मान होता है, उस की इच्छाओं का मान रखा जाता है, उस के विचारों को स्थान दिया जाता है, उस की आजादी का खयाल रखा जाता है उस घर का, उस समाज का अर्थात पूरे देश का विकास होता है. इसी एक चीज के अभाव के कारण देश की अमीरी को, संस्कृति को ठोस चेहरा नहीं मिल पाया. फिर भी एक चमकता सितारा इस घने अंधेरे को भेद कर चमकने का प्रयास करता है. खुद का वजूद ढूंढ़ने का प्रयास करता है और वह चेहरा है सोमाया जबरती का, जिस का सऊदी अरब के ‘सऊदी गजेट’ नामक अखबार के प्रमुख संपादक के रूप में चयन हुआ. इस देश में महिलाओं पर जिस तरह की बंदिशें हैं उन्हें देखते हुए यह चयन वास्तव में सोमाया के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि है.

समर बदावी

आज 21वीं सदी में जहां दुनिया की महिलाओं के हुनर को आकाश की सीमाएं भी नहीं रोक पाईं, वहीं इस देश की महिलाओं को आज भी मोटरकार चलाने के लिए उलझना पड़ रहा है. मोटरकार चलाने के लिए लड़ने वाली एक महिला थी समर बदावी. उन के घर से शुरू हुआ यह संग्राम सामाजिक आंदोलन में तबदील हुआ. समर ने शोषण करने वाले पिता के खिलाफ मुकदमा दाखिल किया, जो सऊदीअरब के तथाकथित धर्म के सौदागरों को किसी भी हाल में बरदाश्त न था. समर के पास पिताजी के अत्याचार का सुबूत तो था, लेकिन अपने अभिभावकों के खिलाफ दगाबाजी करने के आरोप में समर को कैदखाने में डाल दिया गया.

लेकिन समर की लड़ाई तब भी थमी नहीं. 2010 में उस ने अपना मुकदमा अपने वकील की मदद से जीता. 2011 में समर सऊदी अरब में महिलाओं के मतदान के मुद्दे पर आवाज उठाई. बहरहाल, वहां के अब्दुला के शासन ने 2015 में होने वाले चुनावों में महिलाओं को मतदान का अधिकार देने की बात मान ली है.

मनल अल शरीफ

उसे अपनी सहूलत के लिए गाड़ी चलानी थी. लेकिन सऊदी अरब में गाड़ी चलाने वाली महिला की समाज में आलोचना होती थी. उस ने गाड़ी चलाई, इसलिए उसे जेल जाना पड़ा. फिर मनल ने उस के खिलाफ सोशल मीडिया के माध्यम से ‘वूमन टू ड्राइव’ संघर्ष शुरू किया और महिलाओं से इस अभियान में शामिल होने का आग्रह किया. इस पर उसे बहुत सी प्रतिकूल प्रतिक्रियाएं भी मिलीं. मनल के साथ उस के पूरे परिवार को हिरासत में लिया गया. पूछताछ के बाद उस के दोनों भाइयों को छोड़ दिया गया. लेकिन मनल कैदखाने में ही रही. उस के पिताजी ने सऊदी अरब के राजे अब्दुल्ला को क्षमायाचना पत्र लिख कर उसे माफी देनी की विनती करते हुए कहा कि मनल आगे कभी गाड़ी को हाथ भी नहीं लगाएगी.

आज मनल अपने पति के साथ दुबई में रहती है. लेकिन उस की लड़ाई अभी भी समाप्त नहीं हुई है, उलटा और बढ़ गई है.

‘सौदी गजेट’ की संपादक सोमाया को भी गाड़ी चलाने की इजाजत नहीं. 10 साल पहले उपसंपादक के पद पर काम करने वाली सोमाया का काम दिनबदिन बढ़ता गया.

समाचार पत्र की जिम्मेदारियां संभालने के साथसाथ अन्याय के विरोध में महिलाओं को अपना वजूद के लिए, विचारविमर्शकरने के लिए इकट्ठा किया.

इस कोशिश की जीत यानी ‘वूमंस इंडिया फोरम’ चर्चा सत्र का उपक्रम में हुई. इस उपक्रम में भाग लेने वाली महिलाओं की संख्या दिन ब दिन बढ़ती गई. लिखने की चाहत, कुछ नया सीखने और औरों को भी संघटित करने के गुणों की वजह से ही सोमाया इतनी आगे बढ़ी है.

अपनी इस सफलता के बारे में बात करते हुए सोमाया ने कहा, ‘‘मेरे संपादक बनने से सऊदी अरब की सभी गलत प्रथाओं को एक धक्का लगा. मुझे विश्वास है कि इसी से हम महिलाओं के लिए विकास के दरवाजे खुलेंगे. संपादक की जिम्मेदारी के साथसाथ अपनी सभी सऊदी बहनों के लिए कुछ करने की जिम्मेदारी भी मैं ने स्वीकार की है.’’

सोमाया को इस बात का गर्व है कि आज जिस अखबार में वह काम कर रही है वहां 20 लड़कियां और काम कर रही हैं और इस में पुरुषों की संख्या केवल 3 है.

सोमाया का संपादक बनना यकीनन एक सकारात्मक घटना है. लेकिन अभी राहें और भी हैं. मगर मुश्किल कुछ नहीं बस कुछ कर गुजरने की दृढ़ इच्छाशक्ति होनी चाहिए.

इसी दृढ़ इच्छाशक्ति की वजह से ही हम भारतीय महिलाओं ने बहुत बड़ी कामयाबी हासिल की है. फिर भी एक बात तो कहनी ही है.

आज हम भारतीय महिलाओं ने प्रगति के शिखर को तो छू लिया है. लेकिन अपने ही देश की मुसलिम महिलाओं के हालात भी सुधरे हुए हैं, ऐसा नहीं कह सकते हैं. धर्म के जाल, अनिष्ट प्रथाओं की पकड़ से भारतीय मुसलिम महिलाओं को बाहर आना ही होगा. इस के लिए शिक्षा, आधुनिक और सजग विचारों का चयन करना जरूरी है. प्रगतिशीलता तो हमारे देश की नींव है. मलाला, मनल, सोमाया प्रतिकूल परिस्थितियों में खुद को सिद्ध कर के दिखाती हैं, तो अपने देश का आकाश तो खुला है, बस उड़ान भरने की जिद मन में उतारनी है.

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