होना यह चाहिए था कि वैज्ञानिक और तकनीकी तरक्की के द्वारा ज्ञानविज्ञान के खुलते नए आयामों के साथ रूढि़गत और अंध- विश्वासपूर्ण कारनामों की सामाजिक भूमिका अनुपातिक रूप से समाप्त होती जाती, लेकिन इस के ठीक उलट ये कारनामे न केवल अपनी पूरी सघनता के साथ मौजूद हैं, बल्कि इन की सामाजिक मंजूरी अधिक बढ़ती जा रही है. एक ओर सदी के तथाकथित महानायक अपने बेटेबहू के साथ मुंबई और तिरुपति के मंदिरों की खाक छानते हुए लाखों अंधभक्तों के लिए अनुकरणीय उदाहरण पेश कर रहे हैं, दूसरी ओर मंदिरों में क्षमता से दोगुनी उमड़ी भीड़ में सैकड़ों मर रहे हैं तो हजारों को ‘बिना दर्शन’ मायूस हो कर वापस लौटना पड़ रहा है.

तमाम खतरों और मुसीबतों के बावजूद अमरनाथ और मानसरोवर जैसी दुर्गम यात्राओं पर जाने वालों की संख्या में कोई कमी नहीं आ रही, उलटे भीड़ बढ़ती ही जा रही है.

पापों से ‘पिंड’ छुड़ा कर पुण्य की गठरियां बांधने के लिए सांसद, विधायक और मुख्यमंत्री तक चमत्कारी बाबाओं  के आगे नतमस्तक हैं. विरोधियों को पटकनी देने के लिए तमाम राजनीतिबाज, पूजापाठ और अनुष्ठानों के जरिए अपने मनोरथ साधते हैं. मियां रुहानी और बाबा बंगाली अपने मोबाइल नंबर अखबारों में छपवा रहे हैं और हर गलीमहल्ले में थोक के भाव तैयार मंदिरमजारों के उत्साही कर्ताधर्ता, तमाम तरह के अनुष्ठानों के परचे बंटवा रहे हैं.

धर्म का इकबाल बुलंद करने में लगे अपने नाम को धन्य करने वाले ऋषिमुनि गणों के बड़ेबड़े कारपोरेट संगठन हैं, जो चिकनी पत्रिकाओं, टीवी चैनलों से ले कर इंटरनेट तक व्याप्त  हो कर देश- विदेश में अपनी सेवाएं दे रहे हैं. उन के पीछे गातीबजाती अंधी भीड़ की तादाद हजारों में नहीं, लाखों में है, जिस की बदौलत करोड़ों के टर्नओवर फलीभूत किए जा रहे हैं. टीवी चैनलों पर इनसानों से ज्यादा भूतप्रेत, नागनागिन और पुरानी हवेली, आत्माएं छाई जा रही हैं और तमाम हिंदीअंगरेजी अखबारपत्रिकाओं  में अंकशास्त्री, नक्षत्रशास्त्री, टैरोरीडर, वास्तुशास्त्री आदि मोटी फीस ले कर अपनाअपना राग गाए जा रहे हैं.

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