उत्तर प्रदेश में सासबहू की सी लड़ाई बेटे, पिता, चाचा में हो रही है. अखिलेश यादव सरकार अपनी तरह चलाना चाहते हैं, पिता और चाचा यानी ससिया चाची और सास मिल कर अपने रंग दिखा रहे हैं. भारतीय पारिवारिक परंपरा का यह उदाहरण न पहला है न अंतिम. पौराणिक ग्रंथ भी इन से भरे हैं, लोक कथाएं इन से भरी हैं और अदालतों के फैसले इन से भरे हैं.
निकटता जहां प्रेम व भरोसा पैदा करती है, वहीं असहजता भी पैदा करती है. अनजानों से लेनदेन बकाया नहीं रहता. अपनों से खाता कभी बंद नहीं होता और बैक डेटेड ऐंट्रियां होती रहती हैं और अखिलेश, मुलायम व शिवपाल इसी चक्कर में हैं और वह भी तब जब 2017 के चुनाव सिर पर हों. जिसे लगता है कि उसे उतना लाभ नहीं हो रहा है जितना वह उठा सकता है, वह विद्रोह का झंडा सास या बहू की तरह उठा लेता है.
कहने को तो हम नारे लगाते रहते हैं कि सास मांजी होती है, बहू बेटी होती है पर इन के बीच एक अदृश्य दीवार मोटी होती है और पैतरेबाजी हर समय चलती रहती है. इस से परिवार टूटते हैं, मातापिता यानी सासससुर भी नुकसान में रहते हैं और नातीपोते भी. पर यह प्रकृति का नियम है और इस पर गम नहीं करना चाहिए.
उत्तर प्रदेश में जो हुआ वह इंदिरा गांधी के घर में हो चुका है. वह जयललिता के साथ हुआ, आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू के साथ हुआ, शिवसेना के बाल ठाकरे परिवार के साथ हुआ. इसलिए न यह अनूठा है और न चिंता की बात. राज्य की सरकार चलती रहेगी, रसोई में खाना पकता रहेगा बस बरतन जरा जोर से पटके जाएंगे.
मनुष्य को साथ रहने के गुण मिले हैं पर ये गुण हमारे जीन्स में इतने गहरे नहीं गए हैं कि सभी मानव एकसाथ एकजैसा सोचने लगें. ऐसा होता तो न सदियों से युद्ध होते, न करोड़ों मारे जाते और न ही तलाक होते. मनुष्य अपने हितों के कारण साथी ढूंढ़ता है और जब बात हितअहित की सीमा तक पहुंच जाए तो अलग होना ही एक तरीका बचता है.
अखिलेश को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की गद्दी छोड़नी पड़ सकती है और हो सकता है 2017 के चुनावों में कोई पक्ष जा कर भाजपा या मायावती से जा मिले. ऐसा होता है तो समाजवादी दल चाहे समाप्तप्राय हो जाए पर दूसरों की थाली में हलवापूरी बिना मेहनत के आ जाएगी. यह मामला थोड़ा चौंकाने वाला है पर अजीब नहीं और इसीलिए 2-4 महीनों बाद उस की लकीरें भी रेत की जमीन पर न रहेंगी.