महानगरों में बच्चों के लिए क्रैच, प्रीस्कूल, प्ले स्कूल, किंडरगार्टन जैसे नामों से संचालित होने वाली संस्थाएं बदलते सामाजिक परिवेश की जरूरत बन गई हैं. कामकाजी मातापिता औफिस आवर्स में बच्चों को उचित देखभाल के लिए ऐसी संस्थाओं में छोड़ देते हैं.
बढ़ती आधुनिक जरूरतों, खत्म होते पड़ोस और संयुक्त परिवारों की टूटती परंपरा में उन्हें यही विकल्प बेहतर नजर आता है. बच्चों को लाडदुलार, स्नेह, व्यवहार व बातचीत की शिक्षा पैसे के बदले छोटे बच्चों को पालनाघर देने को तैयार हो जाते हैं. मातापिता बेफिक्र भी हो जाते हैं कि उन के बच्चे अच्छे माहौल में पलबढ़ कर जिंदगी का बुनियादी सबक ले कर भविष्य की तरफ बढ़ रहे हैं.
सतर्क रहें अभिभावक
संचालकों की मुंहमांगी फीस चुका कर इस बेफिक्री में और भी इजाफा हो जाता है. लेकिन क्या हकीकत में इसे बेफिक्री ही मान लिया जाए? ऐसा करने वाले अभिभावक कई बार सावधानी और सतर्कता बरतने वाली बुनियादी चूक कर जाते हैं. उन की चूक न सिर्फ उन्हें, बल्कि उन के बच्चे के कोमल मन पर भी भारी पड़ती है.
दिल्ली से सटे उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद जनपद में रहने वाले एक दंपती को भी यही बेफिक्री थी, लेकिन उन के साथ जो हुआ उस पर वे आज तक पछता रहे हैं. प्रीति व अजय (बदले नाम) दोनों ही नोएडा की एक प्राइवेट कंपनी में काम करते थे. उन की 4 साल की एक बेटी थी. प्राथमिक परवरिश के बाद उन्होंने बेटी को प्ले स्कूल भेजने का फैसला किया. उन्होंने एक बड़ी सोसाइटी में चल रहे किड्स स्कूल क्रैच में बच्ची को भेजने का फैसला किया. उन्होंने जा कर बातचीत की, तो पता चला कि महीने में 4 हजार के बदले स्कूल के संचालक बच्चे की देखभाल करते हैं. बच्चों को घर जैसा माहौल, खानापीना, स्नेह देना यानी उन का हर तरह से खयाल रखा जाता था. मातापिता के आने तक बच्चे के प्रति हर तरह की जिम्मेदारी संचालकों की होती. इस दंपती को यह बहुत अच्छा विकल्प लगा. बेटी को सुबह वहां छोड़ कर वे आराम से नौकरी पर जा सकते थे. इस से बेटी को भी किसी तरह की परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता. अत: उन्होंने बेटी को वहां छोड़ना शुरू कर दिया.
चंद महीने बाद प्रीति को बेटी की तबीयत बिगड़ती महसूस हुई. अब वह प्ले स्कूल जाने के नाम से ही रोने लगती थी. एक दिन तबीयत ज्यादा बिगड़ी, तो उन्होंने गौर किया. बेटी के शरीर पर कुछ गंदे निशान थे. उन्होंने इस बारे में प्यार से बेटी से पूछा, तो उस ने रोते हुए बताया कि यह सब उस के साथ स्कूल के दादू करते हैं. प्रीति हैरान रह गईं. उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि उन की बेटी के साथ इस तरह की गंदी हरकत की जा रही थी और वे अनजान थीं. पति कंपनी के टूअर पर विदेश गए हुए थे. प्रीति ने उन के आने पर हकीकत बताई, तो 12 जनवरी, 2016 को स्कूल संचालकों के खिलाफ उन्होंने थाना विजय नगर में एफआईआर दर्ज कराई.
पुलिस ने दुष्कर्म, अप्राकृतिक यौन शोषण व बच्चों को यौन शोषण से बचाने के लिए बनाए गए कानून के तहत काररवाई की. मैडिकल रिपोर्ट में भी इस की पुष्टि हुई. मामला संगीन था, लिहाजा पुलिस ने आरोपी अधेड़ उम्र के अरुण सिन्हा नामक व्यक्ति को गिरफ्तार कर लिया.
दरअसल, आरोपी की पुत्रवधू प्ले स्कूल चला रही थी, जिस में वह भी सहयोग करता था. बहू जब किसी काम से बाहर जाती थी, तो वह बच्चों के साथ गंदी हरकतें करता था. बाद में उस ने प्रीति की बेटी को अपनी गंदी हरकतों का नियमित जरीया बना लिया था. किसी ने शायद ही सोचा होगा कि नामी सोसाइटी में इस तरह की घिनौनी सोच वाला शख्स शराफत का चोला ओढ़े रह रहा है. यह सचाई प्रीति और अजय के लिए किसी सदमे की तरह थी.
अब प्रीति और अजय भी पछता रहे हैं. उन के जैसे हजारों मातापिता हैं, जो ऐसा करते हैं. महानगरों में उच्च व मध्यवर्गीय मातापिता जरूरतवश औफिस आवर्स तक बच्चों को प्रीस्कूल में भेजते हैं. बड़ी कीमत चुका कर वे मान लेते हैं कि उन के बच्चे भावनात्मक, मानसिक व शैक्षिक रूप से तैयार हो कर भविष्य के लिए आगे बढ़ रहे हैं.
सोचसमझ कर चुनें प्ले स्कूल
क्या बच्चों की सुरक्षा और विकास के मामले में मातापिता अपनी सोच पर वाकई खरे उतर रहे हैं? यह सोचनीय है. अनजाने में ही सही सावधानी बरतने के अभाव में मातापिता बच्चों के दुश्मन बन जाते हैं. ऐसी नर्सरी संस्थाएं जरूरत तो हैं, लेकिन उन के चुनाव में सतर्कता जरूर बरतनी चाहिए.
हरियाणा के एक प्ले स्कूल में ढाई साल की बच्ची के साथ इस कदर मारपीट की गई कि उस का सिर ही फूट गया. बच्ची को अस्पताल में दाखिल कराना पड़ा. उस के परिजनों ने स्कूल संचालिका के खिलाफ मुकदमा दर्ज करा दिया.
चाइल्ड प्ले स्कूलो में कई बार वह सब होता है, जो प्रत्यक्ष में दिखाई नहीं पड़ता. ऐसे भी मामले सामने आते हैं जब बच्चों को शांत रखने और उन्हें सुलाने के लिए जूस में नशीला पदार्थ तक दिया जाता है.
मातापिता को यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि बच्चे कच्चे घड़े की तरह होते हैं. उन्हें जैसा रूप दिया जाएगा वैसे ही वे हो जाएंगे. यदि उन के साथ प्रीस्कूल में अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता है, तो उन में भावनात्मक व मानसिक विकृतियां आने की संभावना बढ़ जाती है. अत: अभिभावकों को छोटे बच्चे की देखभाल के दावे करने वाली संस्थाओं का चुनाव सोचसमझ कर ही करना चाहिए. यह तय करना जरूरी है कि जहां बच्चों को छोड़ना चाहते हैं वह क्या बच्चों के लिए हर तरह से सुविधाजनक और सुरक्षित है?
इन बातों का रखें खयाल
– पता करें कि संस्था के खिलाफ पहले शिकायतें तो नहीं हैं.
– उन अभिभावकों से भी मिलें जिन के बच्चे संस्था में जाते हैं. ऐसे अभिभावकों के अनुभव लें.
– वहां आने वाले बच्चों के व्यवहार और भावनात्मकता को भी परखें.
– पता करें कि संस्था संचालकों का व्यवहार कैसा है.
– औफिस आवर्स के अलावा भी संस्था में जाएं. इस से हकीकत परखने का मौका मिलेगा.
– संस्था की इजाजत से बच्चों के बीच समय बिताएं और पूछें कि उन्हें कोई परेशान तो नहीं करता.
– समयसमय पर बच्चों से वहां की डेली गतिविधियों पर बात करें. बच्चा कुछ कहना चाहे, तो डांट कर उसे चुप न कराएं. देखें कि उस में अच्छी आदतों का विकास हो रहा है या नहीं.
– शिकायत मिलने पर बेहिचक संस्था के खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज करें.