वैसे तो हिंदुओं के बहुत से देवता हैं पर इन में ब्रह्मा, विष्णु और महेश प्रमुख हैं. इन्हीं के नाम से धर्म के धंधेबाज अपनी दुकानदारी चलाते हैं. ब्रह्मा की स्थिति घर के उस दाऊ जैसी है जिस के पैर तो सब पड़ते हैं पर महत्त्व कोई नहीं देता है. इस के पुत्रों की लिस्ट बहुत लंबी है. विष्णु प्रमुख देव है. इसी को भगवान, ईश्वर, परमात्मा, परमेश्वर, ब्रह्मा आदि नामों से पुकारा जाता है. इसी ने भारत में राम, कृष्ण व अन्य अवतार ले कर अनेक लीलाएं की हैं.
कार्तिक माह में इसी की पूजा की जाती है. कार्तिक व्रत स्त्रीपुरुष दोनों कर सकते हैं. पर व्यवहार में हम केवल हिंदू नारियों को ही कार्तिक स्नान व व्रत करते देखते हैं. कार्तिक माह का व्रत करने वालों को धन, संपत्ति, सौभाग्य, संतान सुख के साथ अंत में सब पापों से मुक्त हो कर बैकुंठ में राज करने की गारंटी दी गई है.
कार्तिक माह की कथा बहुत लंबी है. इस में कई अध्याय हैं. प्रत्येक अध्याय में काल्पनिक कथाएं जोड़ कर व्रत का महत्त्व अंधविश्वासियों के दिमाग में ठूंसठूंस कर भरा गया है. अंधविश्वास को पुष्ट करने के लिए शाप और वरदान का सहारा लिया गया है. पापपुण्य को ले कर पुनर्जन्म के काल्पनिक किस्से गढ़े गए हैं ताकि पंडेपुजारियों को मुफ्त का माल और चढ़ावा मिलता रहे. चढ़ावे से ही तो पिछले जन्मों के पाप धुलेंगे और अगला जन्म खुशहाल होगा.
कार्तिक व्रत की महिमा ब्रह्मा ने अपने पुत्र नारद को सुनाई है. नारद ने सूतजी को और सूतजी से अन्य ऋषिमुनियों ने सुनी है. बाद में इस कथा को धर्म के धंधेबाज पंडेपुजारियों ने लिखी है. जिस में गपें और बेसिरपैर के किस्से भरे हुए हैं. यहां कथा का संक्षिप्त रूप प्रस्तुत है.
कथा के अनुसार, एक दिन सत्यभाभा ने कृष्ण (विष्णु) से पूछा, ‘‘हे प्रभु, मैं ने पिछले जन्म में कौन से पुण्य कार्य किए हैं जिन से मैं आप की अर्द्धांगिनी बनी.’’ इस पर कृष्ण ने कहा, ‘‘पूर्व जन्म में तुम देवशर्मा नामक ब्राह्मण की पुत्री और चंद्र शर्मा की पत्नी थीं. तुम्हारा नाम गुणवती था. पिता और पति की अकाल मृत्यु होने से तुम अनाथ हो गईं. विधवा होने पर घर की समस्त संपत्ति ब्राह्मणों को दान दे कर तुम एकादशी और कार्तिक का व्रत करने लगीं. कार्तिक व्रत मुझे बहुत प्रिय है. यही कारण है कि इस जन्म में तुम मेरी अर्द्धांगिनी बनी हो.’’
दान का महिमामंडन
पुनर्जन्म को ले कर पंडितजी का दिमाग कमाल का है. कृष्ण स्वयं विष्णु (भगवान) के अवतार हैं. जब भगवान कहेगा तो मानना ही पड़ेगा. इसीलिए कुंआरी कन्याएं इस जन्म में और विवाहिताएं अगले जन्म में कृष्ण जैसा वर पाने की लालसा से कार्तिक व्रत का टोटका करती हैं. पर यह टोटका तब सफल होता है जब गुणवती की तरह पंडेपुजारियों को दान दिया जावे.
कार्तिक व्रत अश्विनी माह की पूर्णिमा से शुरू किया जाता है. प्रात:काल स्नान कर व्रत रखने का संकल्प किया जाता है. कथा के अनुसार, संध्या के समय ब्रह्मा की सोने/चांदी अथवा मिट्टी की मूर्ति बना कर उस का पूजन किया जाए. पूजन करने के बाद ब्राह्मणों को भोजन कराया जाए तथा आभूषण, अन्न, वस्त्र, गाय आदि दानदक्षिणा दे कर उन को ससम्मान विदा किया जाए. चूंकि ब्राह्मण के दाहिने पैर में सब तीर्थ, मुंह में वेद व अंगों में देवताओं का निवास होता है इसलिए व्रती पूरे कार्तिक माह ब्राह्मणों को भोजन कराएं और बाद में स्वयं करें.
यह है कथा का केंद्रीय भाव. कार्तिक व्रत के बहाने एक माह तक ब्राह्मणों को भोजन और दानदक्षिणा मिलने का इंतजाम हो गया. लेकिन जब ब्राह्मणों के अंगों में ही सब तीर्थ व देवता निवास करते हैं तो वे लोग मूर्ख हैं जो देवताओं की पूजा करते हैं. उन्हें तो केवल ब्राह्मणों की ही पूजा करते रहना चाहिए.
जब किसी गप को बारबार और विविध प्रकार से कहा जाए तो अंधविश्वासी उसे सही मान लेते हैं. कार्तिक व्रत करने से अगले जन्म में बैकुंठ प्राप्ति के लिए कथा में कई बेसिरपैर के किस्से गढ़े गए हैं. यहां कुछ किस्सों का संक्षेप में उल्लेख करना ही संभव है.
कथा के अनुसार, प्राचीनकाल में करतीपुर नामक नगरी में धर्मदत्त नामक ब्राह्मण रहता था. वह विष्णु की भक्ति के साथ कार्तिक व्रत करता था. एक बार उसे कलहा नामक एक कुरूप राक्षसी मिली. धर्मदत्त को उस पर दया आ गई. इसलिए उस ने कलहा पर तुलसीदल का पानी छिड़क दिया और अपना आधा पुण्य उसे दे दिया. तुलसीदल के छींटे और आधा पुण्य देने से वह सुंदर स्त्री बन गई और उसे पूर्व जन्मों की याद आ गई. पूर्वजन्म में उस ने बहुत पाप किए थे, इसलिए वह सूअरी, बिल्ली, प्रेतनी बनने के बाद राक्षसी बनी. तब उस ने (सुंदर स्त्री ने) पूर्वजन्मों के पाप नष्ट होने की विधि धर्मदत्त से पूछी. धर्मदत्त ने उस से एकादशी और कार्तिक व्रत करने को कहा. उस ने वैसा ही किया. अगले जन्म में धर्मदत्त राजा दशरथ बने और कलहा उन की पत्नी बनी. भक्ति के वशीभूत विष्णु ने राम के रूप में दशरथ के घर में जन्म लिया.
पंडितों का गोरखधंधा तो भगवान भी नहीं समझ सकता है. कहीं वृंदा के शाप से विष्णु ने रामावतार लिया और कहीं नारद के शाप से. यहां कार्तिक व्रत के कारण धर्मदत्त अगले जन्म में दशरथ बनते हैं और विष्णु राम के रूप में उन के पुत्र. सही क्या है, इसे पंडित और व्रती जानें. तुलसीदल छिड़कने और आधा पुण्य देने से सुंदर स्त्री बनना कोरा चमत्कार है. अगर पंडित पुण्य ट्रांसफर होने की विधि भी लिख देते तो आज के भक्तों को अवश्य लाभ होता. आजकल के शंकराचार्य, महंत, कथावाचक व पंडेपुजारी भी ‘पुण्यात्मा’ माने जाते हैं. परंतु किसी ने भी अपने पुण्य का अंश किसी पापी को ट्रांसफर नहीं किया. अगर कर दे, तो कथा की असलियत का पता चल जाए.
एक कथा कहती है कि पुराने समय में उज्जैन में चमड़े का व्यापार करने वाला धनेश्वर नामक एक व्यभिचारी ब्राह्मण रहता था. वह चोर, शराबी व वेश्यागामी था. उस ने कभी भी शुभकर्म नहीं किए. वह पापकर्म करता हुआ सदैव इधरउधर आवारा घूमता रहता था. घूमतेघूमते एक दिन वह कार्तिक माह में नर्मदा नदी के तट पर बसी महिष्मती नगरी में पहुंचा. वहां कार्तिक व्रत करने वाले यात्री भी ठहरे हुए थे. वे स्नान करने के बाद नित्य विष्णु भगवान की कथाएं कहते व कीर्तन करते थे. धनेश्वर भी कुछ दिनों के लिए वहीं ठहर गया और उन के बीच में रह कर उस ने भी कीर्तन व कथाएं सुनीं.
जब वह मरा तो यम के दूत उसे पाश में जकड़ कर यमपुर ले गए. चूंकि उस ने जीवनभर पाप कमाया था, इसलिए यमपुर के मुख्य न्यायाधीश चित्रगुप्त उसे घोर नरक में डालने का आदेश देते हैं. इतने में वहां नारद आ जाते हैं. वे चित्रगुप्त से कहते हैं कि यह नरक में डालने योग्य नहीं है क्योंकि इस ने कुछ दिन कार्तिकव्रतियों की संगत की है तथा विष्णु भगवान की कथा सुनी है. फिर क्या था, यमराज ने उसे यक्षलोक का राजा बना दिया जो बाद में यक्षपति कहलाया.
पापमुक्ति का नुसखा
क्या जोरदार कथा है? कुछ दिन कार्तिकव्रतियों की संगत करने और विष्णु भगवान का कीर्तन सुनने से जब जीवनभर के पाप हवा हो जाते हैं तब बुरे कर्मों से क्या डर? पापों को नष्ट करने का इस से सस्ता नुसखा क्या हो सकता है.
तभी तो हिंदू कुकर्म करने से संकोच नहीं करते हैं. यहां कई प्रश्न भी उठते हैं. क्या यमदूतों को पता नहीं था कि धनेश्वर ने विष्णु भगवान का कीर्तन सुना है और कार्तिकव्रतियों की संगत की है? यदि था, तो वे उसे यमपुर क्यों ले गए? क्या यमपुर के न्यायाधीश चित्रगुप्त आंख मूंद कर न्याय करते हैं? यदि नहीं, तो उन्होंने नारद के कहने से अपना पूर्व का फैसला क्यों बदला?
कार्तिक व्रत में तुलसी (पौधा विशेष) और शालिगराम की भी पूजा कीजाती है. इन दोनों का संबंध जलंधर नामक दैत्य से है. कथा के अनुसार, इन तीनों (तुलसी, शालिगराम व जलंधर) की उत्पत्ति अविश्वसनीय, अवैज्ञानिक व अप्राकृतिक है.
कथा कहती है कि एक बार इंद्र और देवताओं के गुरु बृहस्पति कैलास पर्वत पर भगवान शंकर से मिलने जाते हैं. भगवान शंकर इन दोनों भक्तों की परीक्षा लेने के लिए जटाधारी दिगंबर का रूप धारण कर एक स्थान पर बैठ जाते हैं. इंद्र और बृहस्पति की दिगंबर से भेंट होती है. इंद्र ने दिगंबर का नाम व परिचय जानना चाहा और पूछा कि शंकर भगवान कहां हैं. दिगंबर ने कुछ जवाब नहीं दिया. इंद्र ने उस से बारबार यह प्रश्न किया पर दिगंबर चुपचाप बैठा रहा.
इस पर क्रोधित हो कर इंद्र उस पर वज्र का प्रहार करने के लिए तत्पर हो जाते हैं. इंद्र ने ज्यों ही वज्र मारने के लिए अपना हाथ उठाया त्यों ही दिगंबर ने उस का हाथ पकड़ लिया और नेत्रों में से ज्वाला (तेज) निकलने लगी. देवगुरु बृहस्पति ने शंकर भगवान को पहचान लिया और इंद्र को क्षमा कर देने की प्रार्थना की. इस पर शंकर भगवान ने कहा कि मैं अपने तेज का क्या करूं? बृहस्पति के कहने पर शंकरजी अपना तेज क्षीर सागर में डाल देते हैं.
अविश्वासी कथाएं
यहां प्रश्न उठते हैं कि भगवान शंकर तो अंतर्यामी हैं. क्या उन्हें पता नहीं था कि इंद्र और बृहस्पति उन के भक्त हैं? इंद्र देवताओं के राजा हैं. देवता भी अंतर्यामी और करामाती होते हैं. फिर वे यह क्यों नहीं जान सके कि दिगंबर के रूप में शंकर भगवान ही हैं? आंखों से निकला तेज (ज्वाला) कोई वस्तु तो नहीं होती जिस को पकड़ कर कहीं भी डाला जा सकता है? उस तेज का क्या करना है, यह शंकर भगवान क्यों नहीं जान सके. कुल मिला कर कथा कोरी गप है. समझ में नहीं आता कि इन ऊलजलूल गपों पर लोग वर्षों से कैसे विश्वास करते आ रहे हैं?
शंकर भगवान ने जैसे ही अपना तेज क्षीर सागर में डाला, वैसे ही सागर में से निकल कर एक बालक भयंकर आवाज में रुदन करने लगता है. कथा के अनुसार, उस के रुदन से पृथ्वी कांप उठी और समस्त देवता भयभीत हो गए. डर के कारण सब देवता ब्रह्मा के पास जा कर उन से रक्षा करने की प्रार्थना करते हैं. ब्रह्मा सागर तट पर प्रकट हो कर सागर से पूछते हैं कि यह बालक कौन है. उत्तर में सागर उस बालक को ब्रह्माजी को सौंपते हुए कहता है कि मैं कुछ नहीं जानता हूं. आप ही इस का संस्कार कीजिए.
सागर का इतना कहना था कि बालक ने ब्रह्माजी का गला इतनी जोर से दबाया कि उन की आंखों में से जल निकलने लगा. इस पर ब्रह्मा ने सागर से कहा कि मेरे नेत्रों से जल निकलने के कारण इस का नाम जलंधर होगा. यह विष्णु भगवान को जीतने वाला दैत्यों का प्रतापी राजा बनेगा. इस की पत्नी बड़ी पतिव्रता होगी, जिस के बल से, शंकर को छोड़ कर, इसे कोई नहीं मार सकता है. समय बीतने पर जलंधर की शादी कालनेमी दैत्य की पुत्री वृंदा से हो जाती है.
हमारे वैज्ञानिक ने चांद पर पहुंच कर पानी की खोज तो कर ली, परंतु क्षीर सागर की खोज अभी तक नहीं कर सके. अगर कर लें तो बच्चों को दूध का डब्बाबंद पाउडर विदेशों से नहीं मंगाना पड़ेगा. क्षीर सागर में शिवजी का तेज डालना, उस में से बालक निकलना, उस के रुदन से पृथ्वी का कांपना कोरे चमत्कार हैं. हमारे देवता भी कितने पिलपिले हैं जो बालक के रुदन से ही भयभीत हो जाते हैं.
कथा आगे कहती है कि एक बार समुद्र मंथन के अमृत को ले कर जलंधर के नेतृत्व में दैत्यों और देवों में युद्घ होता है, जो देवासुर संग्राम के नाम से प्रसिद्घ है. युद्घ में देवता हार जाते हैं. वे अपनी रक्षा के लिए विष्णु भगवान से गुहार करते हैं. देवताओं की गुहार पर विष्णु जब जलंधर से लड़ने जाते हैं तब लक्ष्मी कहती है कि मैं और जलंधर समुद्र से पैदा हुए हैं, इसलिए हम दोनों भाईबहन हैं. आप जलंधर को मारेंगे तो मैं सदैव दुखी रहूंगी. विष्णु जानते थे कि ब्रह्मा के वरदान से मैं जलंधर को नहीं मार सकता हूं, इसलिए वे लक्ष्मी से कहते हैं कि मैं लड़ने तो जा रहा हूं पर उसे मारूंगा नहीं.
गरुड़ पर सवार हो कर विष्णु भगवान दैत्यराज जलंधर से लड़ने पहुंचते हैं. कई दिनों तक भयंकर युद्घ होता है. युद्घ में दोनों ने नाना प्रकार के दांवपेंच खेले. पर अंत में जलंधर से विष्णु हार जाते हैं. शर्त के अनुसार, विष्णु परिवार सहित जलंधर की नगरी में ही उस के मेहमान बन कर रहते हैं.
विष्णु को हरा कर जलंधर निर्भय
हो कर राज्य करने लगा. उस के वैभव को देख कर देवताओं को जलन हुई. देवताओं में देव ऋषि नारद सब से चालाक है. उस का काम केवल लड़ाना है. वह देवताओं का पक्षपाती और दैत्यों का शत्रु है. एक बार वह घूमताघूमता जलंधर के पास जाता है और उस से कहता है कि आप के पास सब वैभव हैं परंतु पार्वती जैसा स्त्रीरत्न नहीं है. अगर पार्वती जैसा रत्न मिल जाए तो आप के वैभव में चारचांद लग जाएं.
अतार्किक प्रसंग
नारद का यह कथन सुन कर जलंधर कैलास पर्वत पर पार्वती को लेने पहुंच जाता है. वहां उस का शंकर के गणों से युद्घ होता है. शंकर के गण हार जाते हैं. फिर शंकर स्वयं उस से युद्घ करते हैं. पर जलंधर अपनी माया से अप्सराओं को पैदा कर देता है. अप्सराओं को देख कर शिवजी उन पर मोहित हो जाते हैं और कुछ समय के लिए युद्घ बंद कर देते हैं. इस बीच, शिव का रूप धारण कर जलंधर पार्वती के पास पहुंच कर बलात्कार करने का प्रयास करता है. पार्वती उस का कपट पहचान कर अंतर्ध्यान हो जाती है. तब जलंधर निराश हो कर वापस लौट आता है.
इधर, शिवजी फिर जलंधर से युद्घ करने जाते हैं. दोनों ओर से भयानक युद्घ होता है. परंतु जलंधर नहीं मारा जाता है. पार्वती जानती थी कि जब तक जलंधर की पत्नी वृंदा का सतीत्व नष्ट नहीं होता तब तक शिवजी उसे नहीं मार सकते. इसलिए, वह विष्णु से वृंदा का सतीत्व भंग करने को कहती है. विष्णु भगवान जलंधर का रूप धारण कर उस का सतीत्व नष्ट कर देते हैं. वृंदा का सतीत्व नष्ट होते ही शिवजी सुदर्शन से जलंधर के सिर को धड़ से अलग कर देते हैं.
वृंदा को जब ज्ञात होता है कि विष्णु के कपट से उस का पतिव्रतधर्म नष्ट किया है तब वह धिक्कारते हुए विष्णु को पत्थर होने का शाप दे कर स्वयं अग्नि में प्रवेश कर जाती है. कथा के अनुसार, वृंदा के शाप के वशीभूत हो कर विष्णु शालिगराम (पत्थर) बन जाते हैं और वृंदा की चिता की भस्म तुलसी (पौधा विशेष) बन जाती है. पंडेपुजारी अपने भगवान (विष्णु) को बलात्कारी होने के कलंक से बचाने के लिए ही शालिगराम और तुलसी के विवाह का ढोंग प्रतिवर्ष कार्तिक शुक्ल एकादशी को रचते हैं.
कथा के अनुसार, क्या हम देवताओं का आचरण नैतिक व अनुकरणीय कह सकते हैं? चूंकि जलंधर शिवजी के तेज से पैदा हुआ है, इसलिए दोनों का संबंध पितापुत्र का हुआ. इस दृष्टि से शिवजी ने अपने पुत्र की ही हत्या की है. जलंधर की पत्नी वृंदा भी रिश्ते में पार्वती की पुत्रवधू हुई. फिर पुत्रवधू के साथ बलात्कार करना कौन सी नैतिकता हुई? पार्वती और जलंधर का रिश्ता भी मांबेटे का हुआ. नारद, जो स्वयं देवता कहलाता है, मां को ही पत्नी बनाने के लिए पुत्र को उकसाता है. अगर वह पार्वती जैसा ‘रत्न’ लाने को जलंधर से न कहता तो वह पार्वती के पास क्यों जाता? फिर पितापुत्र का युद्घ क्यों होता और क्यों जलंधर मारा जाता? सब से अधिक तरस तो विष्णु पर आता है. वह हिंदुओं का ईश्वर है. क्या वह जलंधर की पत्नी का सतीत्व नष्ट करे बिना उसे नहीं मार सकता था? जलंधर दुष्ट था, तो ब्रह्मा ने उसे वरदान क्यों दिया? हिंदुओं के साधुसंत व मठाधीश बलात्कार करते सुने जाते हैं. ऐसे में अन्य लोग यदि बलात्कार करें तो उन्हें अपराधी कहना कहां तक उचित है? वे तो अपने भगवान का ही अनुकरण कर रहे हैं.
कथा में नदियों और वृक्षों की उत्पत्ति पढ़ कर हंसी आती है. प्राचीनकाल में एक समय ब्रह्माजी सह्य पर्वत पर यज्ञ कर रहे थे. उस में सब देवगण उपस्थित हुए. स्वयं विष्णु भगवान और शिवजी ने यज्ञ की समस्त सामग्री एकत्रित की. महर्षि भृगु व अन्य ऋषि यज्ञ संपन्न कराने आए. यज्ञ की तैयारी होने के बाद देवों ने ब्रह्मा की पत्नी स्वरा को बुलावा भेजा. स्वरा देर तक नहीं आई. तब देवताओं ने ब्रह्मा की दूसरी पत्नी गायत्री को ही उन के दायीं ओर बैठा दिया. इतने में स्वरा भी वहां आ जाती है.
गायत्री को ब्रह्मा के पास बैठी देख कर ईर्ष्या से स्वरा जल उठी. वह गायत्री को अदृश्य बहने वाली नदी और सभी देवताओं को अन्य नदियां होने का शाप दे देती है. इस पर गायत्री स्वरा से कहती है कि ब्रह्मा, जैसे तुम्हारे पति हैं वैसे ही मेरे भी पति हैं, इसलिए तुम भी नदी होगी.
कथा कहती है कि स्वरा और गायत्री दोनों सरस्वती नदी के नाम से बहने लगीं. स्वरा के शाप से विष्णु के अंश से कृष्णा नदी, शिव के अंश से वेणी व ब्रह्मा के अंश से काकू नदी उत्पन्न हो गईं. फिर अन्य देवताओं के अंश अलगअलग नदियों के रूप में बहने लगे.
आम अंधविश्वासी यदि शांति, कल्याण या वर्षा के लिए यज्ञ करे तो बात समझ में आती है. ब्रह्मा तो देवताओं की कैबिनेट में प्रथम स्थान रखते हैं. वही इस विश्व के स्वामिता और भाग्यविधाता हैं. फिर वे यज्ञ किसलिए कर रहे थे? विष्णु और शिव क्रमश: इस जगत के पालक और रक्षक हैं. वे भी यज्ञ के लिए बेगार क्यों कर रहे थे? ऐसा कौन सा कार्य है जिसे ये तीनों देवता नहीं कर सकते हैं?
कथा के अनुसार, स्वरा के शाप ने तो भूगोल ही बदल डाला. भूगोल कहता है कि पहाड़ों या झरनों से नदियां निकली हैं और जिन्हें लोगों ने प्रत्यक्ष देखा भी है. देवता तो अमर हैं. यदि देवताओं के अंशों से नदियां निकली हैं तो वे गरमी में सूख क्यों जाती हैं? क्या गरमी में देवताओं का अस्तित्व समाप्त हो जाता है?
कथा के अनुसार, वृक्षों की उत्पत्ति भी हास्यास्पद और ऊलजलूल है. कथा कहती है कि एक समय भगवान शंकर और पार्वती एकांत में रतिक्रीड़ा में मग्न थे. उसी समय ब्राह्मण का रूप धारण कर वहां अग्नि देव आ जाते हैं, जिस से रतिक्रीड़ा का मजा किरकिरा हो जाता है. इस पर नाराज हो कर पार्वती शाप देते हुए कहती है, ‘‘हे देवताओ, विषय सुख को तो कीटपतंगे भी जानते हैं. आप लोगों ने देवता हो कर उस में विघ्न डाला है. इसलिए आप सब देवता वृक्ष हो जाओ.’’
पार्वती के शाप से शंकर वट क्ष, विष्णु भगवान पीपल वृक्ष बन गए व अन्य देवों से विभिन्न वृक्षों की उत्पत्ति हुई.
मूर्खता की हद
यहां शाप ने बड़ा बखेड़ा खड़ा कर दिया. रतिक्रीड़ा में विघ्न तो केवल अग्निदेव ने डाला था, फिर अन्य देवताओं को शाप क्यों दिया? भगवान शंकर तो पार्वती के साथ ही रतिक्रीड़ा में मग्न थे. वे वट वृक्ष क्यों बने.
इस के पूर्व ब्रह्मा की पत्नी स्वरा सब देवताओं को नदी होने का शाप दे चुकी है. सही क्या है, यह कथा लेखक और कथावाचक पंडेपुजारी या व्रती जानें. इतना अवश्य है कि कथा सुनने वाली व्रती स्त्रियां अवश्य बेवकूफ बन रही हैं.
व्रत का पुण्य तभी मिलेगा जब उस का विधिविधान से उद्यापन किया जाए. उद्यापन के लिए व्रती कार्तिक पूर्णमा को अर्द्घरात्रि के पश्चात स्नान कर किसी जलाशय में 11, 21 या इस से अधिक दीपदान करे. फिर सोने का शालिगराम और चांदी की तुलसी बनवा कर दोनों का विवाह किसी पंडित से संपन्न कराए. तुलसी का पाणिग्रहण संस्कार होने के बाद 31 ब्राह्मणों को सपत्नीक भोजन कराया जाए. भोजन कराने के बाद पंडित को गो, शय्या, आभूषण, वस्त्र, अन्न दान के साथ दक्षिणा दे कर विदा किया जाए. तत्पश्चात, प्रसाद वितरण के बाद स्वयं भोजन करे.
यह है विधिविधान और व्रत का रहस्य. कार्तिक व्रतियों को स्वर्ग मिले या न मिले, पर पंडितों का भला अवश्य हो गया. यहां यह कथन कितना सटीक बैठता है कि जब तक मूर्ख हैं तब तक चतुर लोगों की नित्य दीवाली है.
सौभाग्य, संतान, धन व स्वर्ग के झूठे झांसे में आ कर शिक्षित औरतें तक लुट रही हैं. अगर ये कथाएं सही होतीं तो हिंदुओं में एक भी गरीब और संतानहीन होता. स्त्रियां अपने अखंड सौभाग्य के लिए ही अधिक व्रत करती हैं, परंतु आप को समाज में विधुर कम और विधवाएं अधिक मिलेंगी. स्त्रियां सोचें कि क्या इन व्रतों का यही पुण्य लाभ है?