फिल्म जितना मनोरंजन का साधन होती है, उतना ही सामाजिक मुद्दों को उजागर करने का माध्यम भी होती है. इसलिए कुछ फिल्में केवल आर्थिक फायदे के लिए नहीं बनाई जाती है, बल्कि सामाजिक भावनाओं से प्रेरित होती है. उन्हीं में से एक फिल्म है ‘डॉ. तात्या लहाने, अंगार- द पावर इज विदीन’.

यह फिल्म प्रसिद्ध नेत्रतज्ञ डॉ. तात्याराव लहाने के जीवन पर आधारित है. तात्या लहाने गरीब घर में पैदा हुए एक होनहार बालक थे. उन्होंने मेहनत से पैसे कमाकर अपनी पढाई पूरी की और एक दिन वो नेत्रतज्ञ डॉ. तात्या लहाने बनें. उन्होंने एक छोटे से दवाखाने से शुरुआत की और गांव-गांव में घूम कर लोगों की आंखों की जांच के लिए कैंप लगाना शुरू किया, जिसके जरिये वो आंखों की बीमारी और शस्त्रक्रिया के बारे में लोगों को जागरूक करते थे. उनकी दोनों किडनी खराब हो चुकी थी और वो मरने के कगार पर थे; यह जानकर उन्हें बहुत दुख हुआ. बेटे की लम्बी आयु और उसके सपने पूरे करने के लिए उनकी मां ने अपनी एक किडनी दान दी.

एक लाख से अधिक लोगों के मोतियाबिंद की सर्जरी करने का विश्व रिकौर्ड डॉ. तात्या लहाने के नाम दर्ज है. उनकी इस कार्य निष्ठा के कारण ही वो मुंबई के जे.जे. हौस्पिटल में अधिष्ठाता के पद पर कार्यरत हुए, परन्तु उसके बाद भी उनके जीवन में आने वाली अडचनें और कष्ट खत्म नहीं हुए. हौस्पिटल में एक सफाई कर्मचारी ने डॉ. लहाने पर जाति के नाम पर भेदभाव का झूठा आरोप लगाया और उन पर अट्रोसिटी का गुनाह दर्ज हुआ. लेकिन उन्होंने सभी न्यायालयिन प्रक्रिया का सामना किया और अंत में निर्दोष साबित हुए.

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परभनी जिले के एक गांव में सरकारी डौक्टर की गलती से कई लोगों की आंखें चली गई थी, जिसमें से कुछ लोगों की आंखों की रौशनी डॉ. लहाने लौटाते है. चिकित्सा क्षेत्र में अमूल्य योगदान के लिए २००८ में उन्हें पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया. उनके इस चिकित्सीय सफ़र में उनकी सहकर्मी डॉ. रागिनी पारेख ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है. उन्होंने अपना निजी दवाखाना बंद कर सभी उपकरण जे.जे. हौस्पिटल को दान करके डॉ. लहाने के साथ काम शुरू किया. उनका यह महान कार्य आज भी जारी है.

डॉ. लहाने का सम्पूर्ण जीवन ही इस फिल्म की कहानी है, जिसमें कहीं भी नाटकीयता नहीं है. फिल्म के सभी पात्र और प्रसंग सच्चे है. सिनेमेटिक लिबर्टी के नाम पर निर्देशक कुछ नाटकीय और काल्पनिक दृश्य ला सकते थे जो नहीं किया गया है. बावजूद इसके फिल्म सफल साबित होती है. माधवराज दातार के कैमरे ने उन दृश्यों को बड़ी कुशलता से कैप्चर किया है जो आंखों को समाधान देते है. अभिनेता मकरंद अनासपुरे डॉ. लहाने और अभिनेत्री निशिगंधा वाड डॉ. रागिनी पारेख की भूमिका में अच्छी है. लम्बे अर्से बाद परदे पर दिखी अभिनेत्री अलका कुबल ने डॉ. लहाने की मां की भूमिका में अपनी एक्टिंग की छाप छोड़ी है. पूरी फिल्म को देखते हुए इसकी कहानी आज की पीढ़ी के लिए एक सकारात्मक दृष्टि देने वाली है.

निर्माता-निर्देशक व लेखक – विराग वानखड़े

कलाकार- मकरंद अनासपुरे, निशिगंधा वाड एवं अलका कुबल.

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