सुप्रीम कोर्ट ने बाल विवाहों को ले कर एक मामले में कहा है कि चाहे बाल विवाह मानव अधिकारों के खिलाफ हों और कितने ही घृणित हों, जिस संख्या में ये देश में हो रहे हैं इन का अपराधीकरण नहीं करा जाना चाहिए. यह ठीक है. देश में हर काम को अपराध घोषित करने की परंपरा सी चालू हो गई है.

पहले जियो और जीने दो का जो सिद्धांत कानून बनाने वाले दिमाग में रखते थे अब धर्मों के अनुयायी बन गए हैं कि जो भी कुछ करोगे, पाप करोगे और प्रायश्चित्त करोगे ही.

सुप्रीम कोर्ट के पास मामला गया था कि क्या सहमति से 15 व 17 वर्ष के लड़कीलड़के के यौन संबंध जायज हैं? सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में 18 वर्ष से कम उम्र की लड़की के साथ चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित, सहमति हो अथवा न हो, अपराध घोषित करा है. 15 से 18 साल की विवाहित लड़की से पति के यौन संबंध अब तक अपराध नहीं थे.

पर असल बात तो यह है कि लड़कियों के यौन संबंध 13-14 साल की उम्र से सहमति से शुरू हो जाते हैं और इस कदर होते हैं कि अगर सभी को कानूनी दायरे में लाया गया तो अदालतों में सैकड़ों लड़के अपराधी बने दिखेंगे और सैकड़ों लड़कियां पीडि़ता के रूप में गवाह. यह नकारना कि 17-18 वर्ष की लड़कियों में यौन संबंध अपवाद हैं गलत होगा.

ये संबंध गलत हैं, इस में शक नहीं है पर इन्हें सामान्य अपराधों की गिनती में डालना भी सही नहीं होगा. हमउम्र नाबालिगों के यौन संबंधों को अपराध मान लिया गया तो दोनों के ऊपर जीवन भर का धब्बा लग जाएगा. लड़के को बालगृह की यातनाओं को भुगतने के लिए भेजना होगा और उस का कैरियर चौपट हो जाएगा तो लड़की पर धब्बा लग जाएगा कि वह चालू है. उस की भी पढ़ाईलिखाई चौपट हो जाएगी.

अगर नाबालिग स्कूली यौन संबंध सहमति से हों तो बहुत सावधानी से हैंडल होने चाहिए. हमारी पुलिस और अदालतें इस तरह की नाजुक स्थिति को संभालने लायक नहीं हैं. पुलिस ऐसे मामले में मातापिताओं को लूटने में लग जाती है और अदालतें तारीख पर तारीख डालने में. दोनों की सहज प्राकृतिक क्रिया उन्हें एक अंधेरे कुएं में डाल देती है.

यह भयावह स्थिति आज दिखती नहीं है, क्योंकि अपराध होते हुए भी कोई कानून का दरवाजा नहीं खटखटाता और मामला दबा कर रखा जाता है. लड़कों को डांटडपट दिया जाता है और लड़कियों को घरों में बंद कर दिया जाता है. अगर पुलिस को भनक लगने लगे और जैसा सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया है कि सहमति से नाबालिगों के बीच बना यौन संबंध बलात्कार है, जिस में दोषी केवल लड़का है तो हर चौथा घर लपेटे में आ जाए तो बड़ी बात नहीं.

इस तरह के संवेदनशील पर प्राकृतिक मामलों को सुप्रीम कोर्ट, दूसरी अदालतें और पुलिस खाप पंचायतों की तरह सुलझाने की कोशिश कर रही हैं कि हर मामले में बिना अगरमगर सुने अपराधी घोषित कर दिया जाए और सजा दे दी जाए. पुलिस की कैद खाप पंचायतों की सजा से भी बदतर होती है.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...