केंद्र सरकार ने अब जजों का वेतन बढ़ा दिया है. अब मुख्य न्यायाधीश को 1 लाख की जगह 2.80 लाख मिलेंगे तो सामान्य उच्च न्यायालय के जजों को 80 हजार की जगह 2.25 लाख. जजों का काम जितना है उस से स्पष्ट है कि यह वेतन काफी कम है, क्योंकि उन के सामने खड़े हो कर बहस करने वाले वकीलों में से हर रोज 2-3 ऐसे होते हैं जो एक बहस के अपने क्लाइंट से इस से ज्यादा पैसे लेते हैं. आज जजों के पास न केवल काम ज्यादा है, जीवन और मौत का फैसला करने के साथसाथ करोड़ोंअरबों रुपए के लेनदेन के निबटारे का भी हक है.

जज व्यावसायिक मामलों में इतने ज्यादा लग गए हैं कि अब साधारण या गंभीर अपराधों की तो गिनती ही उंगलियों पर गिनने लायक रह गई है. अब फैसलों में पार्टियों के बीच लेनदेन या सरकार की जबरन वसूली को सहीगलत ठहराना होता है और हर मामले में एक पार्टी का नाराज होना स्वाभाविक है. इसलिए जजों को बड़ी सावधानी से फैसले देने होते हैं.

निचले स्तर पर अगर जज अकेला भी बैठा हो तो उसे छूट नहीं होती सिवा जमानत देने के. दूसरे सभी महत्त्व के मामलों में वह जानता है कि अपील होगी और इसलिए मनमाना निर्णय नहीं दे सकता. यह नौकरी इसलिए चाहे रुतबों वाली हो, पत्नी के लिए खासे दबाव वाली होती है. अब अगर पैसे भी सही न मिलें तो क्या फायदा ऐसी नौकरी का?

जजों की पत्नियां दूसरे काम भी कम करती हैं, क्योंकि अगर वे कहीं नौकरी करें या कुछ और करें तो इन्फ्लुऐंस करना आसान हो सकता है.

जिस तरह घरों की अपेक्षाएं बढ़ी हैं और घरों में सामान बढ़ा है, अच्छे खातेपीते घरों का खर्च सरकारी वेतन से पूरा करना कठिन होता जा रहा है और जजों को शराफत की जिंदगी जीने में कठिनाई होने लगी है. यह एक ऐसा क्षेत्र है जहां हर फैसले पर लगीबंधी दस्तूरी नहीं मिलती है. अदालतों में पेशकार, क्लर्क, चपरासी पैसे ले लेते हैं पर उस का हिस्सा नहीं बंटता. इसीलिए सही वेतन देना जरूरी हो जाता है.

असल में हमारे समाज में इस तरह का भेदभाव बहुत ज्यादा है और जिन के हाथ में करोड़ों के फैसला हैं, उन्हें बहुत साधारण वेतन मिलता है. घर केवल सत्ता की आभा से नहीं चलते. अनेक ऊंचे पदों पर बैठे लोग आर्थिक तनाव में रहते हैं. एक तरफ पत्नी की फटकार तो दूसरी ओर पद की गरिमा का भार.

चाहे सरकारी बजट जो कहे, अच्छे पदों पर अच्छा वेतन जरूरी है. पत्नी खुश तो फैसला शुभ.

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