ओडिशा में कार्तिक का महीना शहरों, कसबों और गांवों की विधवाओं के लिए राहत का सा समय होता है. इस महीने वे अपना घर छोड़ कर जगन्नाथ पुरी के मंदिर के पास बने मकानों में इकट्ठा रह कर पूजा करने के बहाने अपना दुखदर्द अपनी जैसी दूसरी सैकड़ों विधवाओं के साथ शेयर कर सकती हैं.

विधवा होना किसी औरत की अपनी गलती नहीं है. यह गलती तो मृत पति की है. पर आज 2018 में भी ज्यादातर घरों में विधवाओं को सादा जीवन बिताने को मजबूर कर दिया जाता है. पुरानी सोच अच्छीभली पढ़ीलिखी औरतों पर भी हावी हो जाती है और वे खुद पाखंड भरे तीजत्योहारों से बहिष्कृत होने के डर से अलग कर देती हैं.

ओडिशा की ही तरह हर राज्य में औरत के विधवा होते ही उस की खुशी के दरवाजे अपनेआप बंद हो जाते हैं. कुछ जगह खाना एक ही बार मिलता है. अच्छा स्वादिष्ठ खाना कभी चखने को भी नहीं मिलता. मृत पति कमाऊ था तो वह सही ढंग की नौकरी नहीं पा सकती, दुकान हो तो वहां बैठ नहीं सकती, खेत में काम नहीं कर सकती.

सासससुर हों तो घर से निकालने का प्रपंच करने लगते हैं. हाथ में पैसा न हो तो हालत बुरी हो जाती है. पति के मरते ही सारे कागज और चाबियां या तो देवरजेठ ले लेते हैं या बड़ा हो तो बेटा, जिस की पत्नी को विधवा सास से कोई मोह नहीं होता. ओडिशा के पुरी में लगभग 10 हजार इस तरह की औरतें हर साल आती हैं.

भारत की आबादी में लगभग 5 करोड़ औरतें विधवा हैं. ओडिशा में ये ज्यादा हैं, क्योंकि वहां पुरुष ज्यादा छोटी उम्र वाली लड़कियों से शादी करते हैं. पुरुष विधुर हों तो फिर तुरंत विवाह कर लेते हैं चाहे उन के बच्चे हों या न हों पर बच्चों वाली विधवा का दोबारा विवाह तो लगभग असंभव है.

जो सरकार तीन तलाक को ले कर मुसलिम औरतों की दुर्दशा पर घडि़याली आंसू बहा रही है उस के मुंह से इन विधवाओं के लिए क्या कभी एक शब्द भी निकला है?

विधवाओं की दुर्गति वाराणसी और वृंदावन में भी साफ दिखती है, जहां सफेद साडि़यों में कमजोर औरतें बीमार भेड़ों की तरह झुंडों में गलियों में फिरती दिखती हैं.

क्या उन के लिए अच्छे दिन आएंगे या वे हिंदू समाज की पाखंड भरी चक्की में मौत तक इंतजार करती रह जाएंगी?

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