पढ़ाई के नाम पर कमाई की दुकान का दूसरा नाम बन चुके प्राइवेट स्कूलों को न तो बच्चों की पढ़ाई की चिंता है न उन की सुरक्षा की, उन्हें चिंता है तो बस अपने हित साधने की. क्लासरूम में बच्चों के लिए भले ही सहूलियतें न हों पर वे फीस समय पर वसूलते हैं. आनेजाने की नियमित सुविधा दें या न दें पर बस का किराया पूरा व समय पर लेते हैं.

शिक्षा के नाम पर किताबकौपियां, बस किराया, वरदी, जूते आदि से ले कर बिल्ंिडग फंड के नाम पर भी अभिभावकों से लाखों वसूले जाते हैं.

दिल्ली के एक निजी स्कूल को उदाहरणस्वरूप लेते हैं, जिस में 11वीं कक्षा की 3 महीने की फीस का लेखाजोखा कुछ इस तरह है :

ट्यूशन फीस के नाम पर पेरैंट्स पर दोहरी मार पड़ती है क्योंकि वे स्कूल में भी ट्यूशन फीस देते हैं और बाहर कोचिंग की भी. हर 3 महीने में डैवलपमैंट फीस लेने का क्या औचित्य है? फीस में ऐक्टिविटी चार्जेज तो जोड़ दिए जाते हैं लेकिन अधिकांश स्कूलों में अलग से भी इस की वसूली की जाती है.

स्कूल हर साल बिना किसी रोक के फीस बढ़ा देते हैं, भले ही अभिभावक लाखों धरनाप्रदर्शन करें. सरकार कैसे भी कड़े नियम बनाए, इन की दुकानदारी न तो रुकती है और न ही इन पर कोई बंदिश लगती है. फीस बढ़ाने का कोई न कोई बहाना स्कूल ढूंढ़ ही लेते हैं.

हाल में निजी स्कूलों ने 7वें वेतन आयोग को लागू करने के नाम पर फीस में भारी वृद्धि की है. उन का कहना है कि स्कूली खर्च व 7वें वेतन आयोग के एरियर को देने के लिए फीस वृद्धि जरूरी है. 7वें वेतन आयोग के अनुसार शिक्षकों का वेतन बढ़ाया गया है पर इस की असल मार तो अभिभावक ही सह रहे हैं. जो शिक्षक कम वेतन पर काम करने को तैयार थे और उसी लायक थे, उन्हें वेतन में भारी वृद्धि, बिना कुछ किए मिल गई.

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