मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के  नगरनिगम की 6 फरवरी को  संपन्न हुई अहम मीटिंग में 2 अपर आयुक्तों बी के चतुर्वेदी और मलिका निगम को हटाने के साथ उन के खिलाफ विभागीय जांच के आदेश दिए गए. मामला कंप्लीशन सर्टिफिकेट से संबंधित था. कंप्लीशन सर्टिफिकेट सारे राज्यों के सभी शहरों में अनिवार्य है और इस के अभाव में लाखों बनेबनाए मकान वैध रूप से खाली रहते हैं.

भोपाल नगरनिगम के इन अधिकारियों पर आरोप था कि उन्होंने कई बिल्डर्स को गलत तरीके से कंप्लीशन सर्टिफिकेट जारी कर लगभग 200 करोड़ रुपयों का घोटाला कर डाला. जाहिर है कंप्लीशन सर्टिफिकेट देने के एवज में मोटी घूस ली गई और जब मामला दबाए नहीं दबा तो नगरनिगम ने उस पर लीपापोती करने की गरज से कुछ अधिकारियों को सस्पैंड कर दिया जिस के बारे में हर कोई जानता है कि इस सजा के कोई खास माने नहीं होते.

दरअसल होता यह है कि जांच चलती रहती है और दोषी अधिकारी शान से नौकरी करते रहते हैं. दूसरी तरफ कंप्लीशन सर्टिफिकेट घोटाले में दोषी पाए गए बिल्डर्स पर 0.5 फीसदी की दर से पैनल्टी लगा दी गई जो करोड़ों में होती है.

इस मामले में पैनल्टी जमा करने के लिए एक महीने का वक्त दिया गया. उलट इस के नगरनिगम के दोषी अधिकारियों की बाबत जांच की कोई समयसीमा तय नहीं की गई कि यह फलां वक्त तक पूरी कर ली जाएगी.

भोपाल के मामले में तो उस वक्त हैरानी हुई जब 3 दोषी अधिकारियों को हफ्तेभर बाद ही बाइज्जत फिर से पदस्थ कर दिया गया. नियमकायदे और कानूनों के नाम पर जो खेल इस घूसकांड में हुआ उस की मिसाल शायद ही ढूंढ़ने से कहीं मिले.

नगरनिगम परिषद ने एक संकल्प पारित करते हुए अपर आयुक्त बी के चतुर्वेदी और मलिका निगम सहित सिटी इंजीनियर जी एस सलूजा को एकतरफा कार्यमुक्त करते हुए उन्हें उन के मूल विभाग में भेजने व उन के खिलाफ विभागीय जांच की बात कही थी लेकिन 13 फरवरी को शासन ने निगम परिषद का संकल्प खारिज करते हुए उन्हें वापस नगरनिगम में ही नियुक्त करने के आदेश दे दिए. अब यह विवाद कानून के मकड़जाल में उलझ कर रह गया है, जिस में दोषी अफसर शान से नौकरी कर रहे हैं यानी या तो उन्होंने भ्रष्टाचार किया ही नहीं और अगर किया भी है तो उन का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता.

प्रतिनियुक्ति इन के लिए वरदान साबित हुई पर इस का फर्जी कंप्लीशन सर्टिफिकेट पर क्या फर्क पड़ा, यह न किसी ने सोचा और न ही किसी ने बताया.

कंप्लीशन का औचित्य क्या

नवंबर 2017 में नगरनिगम, भोपाल में फर्जी कंप्लीशन सर्टिफिकेट का मामला चर्चा में था. कुछ कांग्रेसी पार्षदों ने आरोप लगाया था कि बिल्डिंग अनुभूति शाखा ने बिल्डरों से सांठगांठ कर उन्हें गलत तरीके से कंप्लीशन सर्टिफिकेट जारी कर दिए हैं.

ऐसा इसलिए किया गया था कि बिल्डर मई 2016 से लागू नए कानून रेरा यानी रियल स्टेट अथौरिटीज एक्ट में रजिस्ट्रेशन कराने से बच जाएं. इस घूसकांड के उजागर होने पर भोपाल के महापौर आलोक शर्मा ने एक जांच कमेटी बना दी जिस ने जांच की तो इस फर्जीवाड़े का कुछ हिस्सा सामने आ गया.

बहरहाल, जो भी सामने आया उस से एक बात तो स्पष्ट हो गई कि सरकार चाहे कितने भी नियमकानून बना ले, वे ग्राहकों के हितों के बजाय भ्रष्ट अफसरों के हित साधते हैं. चूंकि तमाम नियमों और कानूनों की चाबी इन्हीं अफसरों के पास रहती है, इसलिए घूस खाने के लिए उन्हें नया मौका मिल जाता है. कंप्लीशन सर्टिफिकेट उन में से एक है, जिस पर घूस लेने में कोई चूक नहीं की गई.

कंप्लीशन सर्टिफिकेट ग्राहक को आश्वस्त करता एक कागज है कि जिस फ्लैट, मकान या कालोनी में वह रहा है वह कानूनन पूरी तरह वैध है और वैसा ही है जैसा प्रोजैक्ट के वक्त बिल्डर ने बताया था. हिंदी में इस सर्टिफिकेट को अधिभोग एवं समापन प्रमाणपत्र कहा जाता है. जब कोई डैवलपर किसी प्रोजैक्ट को पूरा कर लेता है तो उसे स्थानीय निकाय से इस प्रमाणपत्र को हासिल करना पड़ता है. न लेने पर सजा और पैनल्टी के प्रावधान हैं. बोलचाल की भाषा में इसे कंप्लीशन सर्टिफिकेट कहा जाता है.

बदली अहमियत

भोपाल के एक सीनियर आर्किटैक्ट सुयश कुलश्रेष्ठ की मानें तो कंप्लीशन सर्टिफिकेट तो हमेशा से ही अनिवार्य रहा है पर अभी तक इस की कोई अहमियत नहीं थी, इसलिए लोग इसे लेते नहीं थे. रेरा लागू होने के बाद इस की अनिवार्यता से देशभर के बिल्डर परेशान हैं. सुयश बताते हैं कि रेरा में कोई नया प्रावधान नहीं है. हुआ इतना भर है कि बहुत से पुराने कानूनों को मिला कर एक नया कानून बना दिया गया है.

एक मकान या अपार्टमैंट कई कानूनी जटिलताओं व प्रक्रियाओं में उलझा रहता है. निर्माण से ले कर समापन तक तरहतरह की अनुमतियां डेवलपर को सरकार से लेनी पड़ती हैं. निर्माण का नक्शा पेश करने से ले कर निर्माण पूरा होने के बाद तक नियमकायदे व कानूनों के यज्ञ में सैकड़ों तरह की आहुतियां डालने के बाद भी मकान काननून आप का हुआ या नहीं, यह तय करने का हक पंडों की तरह अधिकारियों के थ में होता है.

कंप्लीशन सर्टिफिकेट इस बात का प्रमाण होता है कि भवन निर्माण का काम स्थानीय कानूनों व स्वीकृत नक्शे या योजना के अनुरूप हुआ है. इस में यदि रत्तीभर भी गड़बड़ी है तो आप एक अवैध भवन या मकान में रह रहे हैं. जहां तक बात बिल्डर्स की है, तो वे तब तक ग्राहक को कब्जा नहीं दे सकते जब तक उन्होंने यह कंप्लीशन सर्टिफिकेट स्थानीय निकाय से हासिल न कर लिया हो. अगर बिल्डर यह सर्टिफिकेट नहीं लेता है तो मान लिया जाता है कि उस ने निर्माण तयशुदा पैमानों व कानूनों के मुताबिक नहीं किया है.

देशभर में ऐसी इमारतों की भरमार है जिन के कंप्लीशन सर्टिफिकेट बिल्डर्स ने नहीं लिए हैं और लिए भी हैं तो भोपाल के घोटाले की तर्ज पर घूस  दे कर, जिस का खमियाजा खरीदारों को भी भुगतना पड़ता है. यह परेशानी कितनी बड़ी है, इस का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देशभर में आएदिन अवैध कालोनियों को वैध बनाने की मुहिम चलती रहती है. अवैध निर्माण क्यों हुआ था और क्या यह बिना सरकारी विभागों की मिलीभगत के मुमकिन है, इस पर सरकारें मौन रहती हैं, लेकिन वे वैध करार देने के नाम पर और टैक्स यानी दक्षिणा लेने से नहीं चूकतीं. रेरा के राडार पर बिल्डर हैं. यह  सर्टिफिकेट तमाम मकानों के लिए भी जरूरी है, इस लिहाज से देश के 80 फीसदी मकान अवैध या गैरकानूनी हैं. अगर इस बाबत भी अनिवार्यता लाद दी गई तो देशभर में हड़कंप मच जाएगा.

बेतुके नियमकायदे

मकान बनाना कभी आसान काम नहीं रहा. 90के दशक तक लोग खुद की देखरेख में अपनी मरजी का मकान बनवाते थे. इस बाबत तब उन्हें स्थानीय निकाय से अनुमति भर लेनी पड़ती थी जो तब 100-500 रुपए की घूस दे कर मिल जाती थी. बिजली, पानी और सीवेज को ले कर तब खासे कानून  वजूद में नहीं थे. सारी सहूलियतें एक आवेदन व निर्धारित शुल्क अदा करने पर मिल जाती थीं. बड़ी दिक्कत तब मजदूरों और सामग्री की हुआ करती थी.

पर जब शहरीकरण का दौर शुरू हुआ तो रियल एस्टेट कारोबार चमक उठा. हर शहर में बिल्डर, कोलोनाइजर्स और डैवलपर कुकरमुत्तों की तरह उग आए.  ये लोग आज भी आम लोगों की कानूनी परेशानियां दूर करने में अहम रोल निभाते हैं. एक बिल्डर सरकारी कायदेकानूनों की जितनी जानकारी रखता है, उतनी शायद खुद सरकार के कर्मियों को भी नहीं होती.

इन जानकारियों और सहूलियतों की कीमत वह ग्राहकों से वसूलता है तो इस में हर्ज क्या. इस सवाल पर तय है कि सहमत होना मुश्किल है. वजह, बिल्डर्स की छवि कुछ ऐसी बिगाड़ी गई है कि वे हर किसी को लुटेरे नजर आते हैं. मकान और भवन निर्माण को ले कर हर साल नए नियमकानून बनते हैं. कहने को तो ये आम लोगों के भले व हित के लिए होते हैं लेकिन हकीकत में इन से घूस का दायरा बढ़ता है.

विभिन्न विभागों से अनापत्ति प्रमाणपत्र लेने से उसे कंप्लीशन सर्टिफिकेट तक के मुकाम तक पहुंचाने का सफर घूस से भरा हुआ है. भोपाल के एक नामी बिल्डर की मानें तो 60 लाख रुपए का एक फ्लैट तो 40 लाख रुपए में बन जाता है पर बचे 20 लाख रुपए में से हमें 12 लाख रुपए टैक्स और घूस के रूप में देने पड़ते हैं. लोग भी हमें पैसे इसी बाबत देते हैं कि कानूनी खानापूर्तियों की बाबत उन्हें दरदर और दफ्तरदफ्तर न भटकना पड़े.

इस बिल्डर के मुताबिक, निर्माण से संबंध रखते अधिकांश नियमकानून गैरजरूरी व बेमतलब के हैं. कंप्लीशन सर्टिफिकेट उन में से एक है. अगर कोई अपनी जमीन पर मकान या अपार्टमैंट बना रहा है तो उसे कंप्लीशन सर्टिफिकेट लेने के लिए बाध्य करना ज्यादती नहीं, तो क्या है.

बात सच भी है कि इतने फुट की गली छोड़ो, इतने फुट का रास्ता अनिवार्य है, इतनी जमीन पार्किंग और इतनी पर्यावरण के नाम पर खाली रखने व बिल्डिंग का इतना या उतना हिस्सा फलां के लिए आरक्षित रखने जैसी शर्तें लागत को बढ़ाती ही हैं जिसे आम ग्राहक को ही चुकाना पड़ता है. अधिकांश पैसा सरकारी खजाने या घूस में जाता है जबकि लोग समझते हैं कि बिल्डर लूट रहा है.

डैवलपर चंदन गुप्ता का कहना है, ‘‘जिसे लूट करार दे दिया गया है वह दरअसल फीस है. एक बिल्डर तो करोड़ों का दांव खेलता है, इस पर भी उस का टेटुआ सरकारी मुलाजिमों के पंजे में रहता है. अगर वह इतना सबकुछ करने के एवज में कुछ ज्यादा ले ले, तो बेकार की हायतोबा क्यों मचती है. कुछ बिल्डर ज्यादा मुनाफे में ठगी करते हैं, पर ऐसे लोग हर पेशे में हैं. दूसरे, लागत मूल्य में उतारचढ़ाव आता रहता है, इसलिए भी धोखाधड़ी होती है.’’

रही बात कंप्लीशन सर्टिफिकेट की, तो उस का औचित्य समझ से परे है, खासतौर से तब, जब उसे भी रिश्वत दे कर हासिल किया जा सकता है. इस की अनिवार्यता से घूसखोरी और बढ़ रही है और भोपाल की तरह देशभर के स्थानीय निकायों के अधिकारी व दूसरे ओहदेदार अपनी जेबें भर रहे हैं.

कंप्लीशन सर्टिफिकेट का स्थानीय निकाय द्वारा दिया जाना और भी बेतुकी बात है. इसे ग्राहक या खरीदार से लिया जाना चाहिए जो मेहनत की गाढ़ी कमाई दे कर मकान खरीदता है. अगर उसे एतराज नहीं तो स्थानीय निकायों को सरपंच बनाने की कोई तुक नहीं. बिल्डर्स के गले में डाले

इस नए फंदे को ढीला करने को निकायों के घूसखोर मुलाजिम तैयार नहीं, जिन्हें आम लोगों के भलेबुरे से लेनादेना नहीं होता.

रेरा का फेर

मई 2016 से ग्राहकों के भले के लिए सरकार ने रेरा यानी रियल एस्टेट अथौरिटी एक्ट लागू किया है जिस का हर किसी ने स्वागत किया. रेरा का प्रमुख प्रावधान यह है कि अब हर प्रोजैक्ट का रजिस्ट्रेशन अनिवार्य है और बिल्डर को उन शर्तों को पूरा करना जरूरी है जिन वह वादा व दावा ग्राहक से करता है.

ग्राहक बिल्डर की ठगी से बचें, यह बेहद जरूरी है लेकिन इस बाबत जो शर्तें बिल्डर पर लादी जा रही हैं वे पूरी हो पाएंगी, इस में शक है. नए  प्रावधानों में से एक उल्लेखनीय यह है कि खरीदारों से जो पैसा बिल्डर लेगा, उस का 70 फीसदी निर्माण कार्य में लगाएगा, लेकिन बिल्डर इमारत की कीमत नहीं बढ़ा पाएगा भले ही बिल्डिंग मटेरियल के भाव बढ़ रहे हों. ऐसे में जाहिर है कि बिल्डर इमारत की गुणवत्ता गिराने को मजबूर होंगे. बिल्डर डिजायन में बदलाव तभी कर सकता है जब दोतिहाई खरीदार अपनी सहमति दें.

ऐसी कई बंदिशों की कोई खास अहमियत नहीं है. वजह, आमतौर पर खरीदार अब जागरूक है और ठोकबजा कर ही जायदाद खरीदता है.

रेरा को लागू हुए डेढ़ साल होने को हैं लेकिन इस का फायदा ग्राहकों को उतना नहीं मिल पा रहा है जितना कहा गया था. इस की इकलौती वजह कानून का उन बाबुओं के हाथों में होना है जो उसे अपनी मरजी से नचाते हैं.

नोएडा और ग्रेटर नोएडा के करीब डेढ़ लाख ग्राहक आज भी इंतजार कर रहे हैं कि उन्हें मालिकाना हक मिले लेकिन वह नहीं मिल रहा है. शिकायतें हो रही हैं पर उन पर कार्यवाही नहीं हो रही. ऐसे में साफ दिख रहा है कि यह कानून भी अव्यावहारिकताओं से भरा है. तयशुदा वक्त में मकान दे पाना पूंजी, बिल्डिंग मटेरियल और श्रमिक उपलब्धता पर निर्भर रहता है. ये सब बातें बिल्डर्स के हक में नहीं हैं, लिहाजा अब विवाद नएनए रूप में सामने आएंगे.

कंप्लीशन सर्टिफिकेट विवाद इसी रेरा की देन है. अप्रैल 2016 तक, जिन्होंने बिल्डिंग निर्माणकार्य पूरा कर लिया था, उन्हें इस सर्टिफिकेट की बाध्यता नहीं थी. लेकिन भोपाल की तरह देशभर में आधेअधूरे प्रोजैक्ट्स को कंप्लीशन सर्टिफिकेट जारी हुए ताकि बिल्डर रेरा में रजिस्टे्रशन से बच सकें तो इस में गलती सर्टिफिकेट जारी करने वाले निकायों की भी है.

दिलचस्प बात यह भी है कि मध्य प्रदेश में तो ग्राम सचिवों तक ने ये प्रमाणपत्र बिल्डर्स को दे दिए थे जिस से यह साबित हुआ था कि सरकार को यह भी नहीं पता कि कंप्लीशन सर्टिफिकेट जारी करने का हक आखिर है किस को. अब मकान महंगे हो गए हैं. रेरा की शर्तों पर खरा उतरने के लिए बिल्डर दाम बढ़ाने को मजबूर हो चले हैं यानी इस नए कानून का भार भी खरीदारों को ढोना है. इस के बाद भी वे खुश और संतुष्ट हैं, तो यह खुशी कितने दिन टिक पाएगी, यह भी जल्द सामने आ जाना है.

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