पर्यावरण  और प्रदूषण जैसे अहम व अति ज्वलंत मुद्दे पर बनी मूक रोमांचक फिल्म ‘‘मरक्यूरी’’ की प्रस्तुतिकरण की खामियों के चलते एक बेहतरीन विषय वाली अच्छी फिल्म आम दर्शकों तक नहीं पहुंच सकती. यह पूरी तरह से पटकथा लेखक व निर्देशक की विफलता ही कही जाएगी कि वह वर्तमान समय के ज्वलंत मुद्दे पर बनी अपनी फिल्म को आम दर्शकों तक पहुंचाकर जागरुकता नहीं ला पाए. और न ही जहर उगलती रासायनिक व धातु की फैक्टरियों के खिलाफ लोगो में रोष ही पैदा हो पाता है.

मूक फिल्म ‘मरक्यूरी’ की कहानी की पृष्ठभूमि में एक केमिकल फैक्टरी के अंदर मरक्यूरी एक्सपोर के चलते धातु की विषैली गैस की वजह से फैक्टरी के आस पास के कई गांवों के इंसान, जानवर, पक्षी आदि मारे जाते हैं. उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद फैक्टरी हमेशा के लिए बंद हो जाती है. उसके बाद भी उस क्षेत्र में जन्म लेने वाला हर  बच्चा अंधा बहरा या गूंगा पैदा होता है. इन बच्चों की परवरिश के लिए एक सेवा भावी संस्था ‘होप स्कूल’ चलाती है. इसी होप स्कूल में अंधे व गूंगे प्रभू देवा बच्चों को संगीत सिखाते हैं, संगीत के कार्यक्रम करके लोगों का मनोरंजन करते हैं.

इसी होप स्कूल के छात्र रहे पांच युवक व युवती सनथ रेड्डी, दीपक परमेश, शशांक पुरूषोत्तम, अनीष पद्मनाभन, इंदुजा व गजराज इसी फैक्टरी वाले भुतहा शहर में आ जाते हैं. और एक मकान में रहते हुए शराब व सिगरेट पीते हैं और ऊंचा संगीत सुनते हैं. यह सभी छह साथी गूंगे हैं. इशारों में ही एक दूसरे से बात करते हैं. रात के अंधेरे में पार्टी के बाद पांच साथी कार से बाहर जंगल में घूमने निकलते हैं और बंद पड़ी फैक्टरी के पास भी जाते हैं. वापसी मे कार इंदुजा चला रही होती है ओर अपने प्रेमी के कहने पर काफी तेज गति से कार चलाती है.

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