दशकों से दुनिया को इस बात की जानकारी है कि जल पर लगातार जलवायु का, तथाकथित विकास का और जीवनशैली का संकट मंडरा रहा है. इस के बावजूद इस जानकारी
व समझदारी का कोई सार्थक या सकारात्मक नतीजा नहीं निकल पा रहा है. दरअसल, हम सब जल बचाने, उस के प्रति संवेदनशील होने का उपदेश दूसरे को तो देते हैं लेकिन खुद को इस सब से परे समझते हैं. इसी होशियारी का यह नतीजा है कि सबकुछ जानने, समझने के बावजूद हर गुजरते दिन के साथ ही धरती का जल संकट गहराता जा रहा है.
घर में नईनई बहू आई थी, गांव में बरसात को छोड़ कर पूरे साल पानी की किल्लत रहती थी. अधेड़ सास बड़ी दूर से ढोढो कर पानी लाती, लेकिन बारबार कहने के बावजूद बहू पानी खर्चने में
जरा भी नहीं हिचकचाती. सास ने बहुत समझाया, यहां की रीत बताई, पर बहू हर दूसरे दिन बालों में शैंपू करती, कपड़े साबुन, डिटर्जेंट पाउडर से धोती. पानी की टोकाटोकी को ले कर सास के साथ ताने से ले कर नोकझोंक और लड़ाई तक की नौबत आ गई. बहू ने भी जिद में अपनी आदत नहीं बदली. पानी पर कलह का पानी जब नाक से ऊपर चला गया तो एक दिन बहू ने थोड़े से पानी के साथ जहर खा लिया. बिहार के एक गांव की यह सच्ची घटना मीडिया में थोड़ी सी जगह पा सकी और घंटे दो घंटे की चर्चा, बस.
असल में पानी की बरबादी को ले कर हमारी नई कसबाई व शहरी जीवनशैली जिद्दी और आत्महंता प्रवृत्ति वाली है. ‘जल ही जीवन है,’ ‘जल है तो कल है,’ ‘कल के लिए आज बचाएं जल,’ जैसे न जाने कितने स्लोगन, नारों, जुमलों की बरसात रोज होती है, लेकिन हम हैं तो चिकने घड़े ही. नतीजा, पर उपदेश कुशल बहुतेरे. पानी की परवा करना हमारी आदत नहीं बन पाती.
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