2 हजार साल पुरानी महाराष्ट्र की पैठणी साड़ी को ‘साडि़यों की रानी’ कहा जाता है. हर दुलहन के पास ऐसी साड़ी उस के वार्डरोब में अवश्य देखने को मिलती है. यह साड़ी हर महिला को किसी भी रूप में पसंद है. बदलते समय के साथ इस के रंग, पैटर्न और पहनावे में अंतर आया पर आज भी यह साड़ी अपनी उस मर्यादा और शान को समेटे हुए है जो सालों पहले हुआ करती थी.

दरअसल, पैठणी साड़ी की एक वैराइटी है जो औरंगाबाद के एक शहर पैठन से उत्पन्न हुई है. यह हाथ से बुनी हुई ‘फाइन सिल्क’ है, जो भारत की सब से उत्तम प्रकार की साड़ी मानी जाती है. इस के किनारे और पल्लू अपनी खास डिजाइन के लिए प्रसिद्व हैं. चौकोर और तिरछे आकार वाले पल्लू में तोतामैना, कमल, हंस, नारियल, मोर आदि खास होते हैं.

दूसरी साड़ियों से अलग

ये साडि़यां हर अवसर पर पहनने वाली को खास अनुभव कराती हैं. पहले ये साडि़यां असली सोने और चांदी के तार से बनाई जाती थीं, जो काफी हैवी होने के साथ साथ महंगी भी होती थीं और बनाने में 6 महीने से ले कर साल भर तक का समय लगता था. पेशवाओं में ऐसी साडि़यों का खास महत्त्व हुआ करता था. उस समय की साडि़यां असली सोने और चांदी के तार से बनाई जाती थीं. 1 किलोग्राम सोने में एक तोला तांबे के तार मिला कर फिर बुनी जाती थी. ‘नार्ली’ और ‘पांखी’ पल्लू उस समय खास प्रचलित थे.

समय के साथसाथ महिलाओं का टेस्ट भी बदला और आज ये साडि़यां सूती से ले कर सिल्क सभी तरह की बाजार में उपलब्ध हैं. ये साडि़यां 200-250 ग्राम जरी, 700 ग्राम सिल्क के साथ बनाई जाती हैं जो वजन में 800 से 900 ग्राम तक होती हैं. अधिक हैवी नहीं होती. ये साडि़यां कुछ इस तरह से बुनी जाती हैं कि इन का बहुमूर्तिदर्शी रूप दिखे. ये दूसरी साडि़यों से अलग पहचान रखती हैं.

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