आजकल जिसे देखो वही राष्ट्रहित में देश को अस्वच्छ बनाने में दिलोजान से जुटा है. कइयों ने तो इस कार्यक्रम की नब्ज और फायदे पहचान कर अपने पुराने सारे काम बंद कर देश को अस्वच्छ करने का नया काम शुरू कर दिया है. प्रोग्राम ताजाताजा है, इसलिए इस काम मेें अभी कमाई की अपार संभावनाएं हैं. वैसे भी, राष्ट्र स्तर पर जब कोई नया काम शुरू होता है तो उस में रोजगार के अपार अवसर हों या नहीं, पर कमाई की अपार संभावनाएं जरूर प्रबल रहती हैं. तब कमाई के हुनरी दाएंबाएं चोखी कमाई कर ही लेते हैं और हर नए प्रोग्राम से अपने बैंक खातों को ठीकठाक भर लेते हैं. अस्वच्छता से भी कमाई निकल आएगी. किसी दिमागदार ने क्या सपने में भी ऐसा सोचा था? नहीं न? कम से कम मैं ने तो ऐसा नहीं सोचा था कि अपने देश का कूड़ा भी इनकम के उम्दा सोर्स पैदा करने का हुनर रखता है.
वे कल कई दिनों बाद मिले. सुना था कि उन्होंने देश को अस्वच्छ करने का ठेका भर रखा है. इसलिए दिख नहीं रहे. ठेका भरें क्यों न, वे कुशल ठेकेदार हैं. हर किस्म के ठेके उन के आगेपीछे घूमते हैं. वैसे इस देश में बिना ठेके के कोई भी काम पूरा नहीं होता. काम चाहे बनाने का हो, चाहे गिराने का. हर जगह ठेके की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है. इसीलिए तो हर किस्म की सरकार को ठेकेदार पर अपने से भी अधिक भरोसा होता है. इस देश में विकास और विनाश के मामले में उतनी भूमिका प्रकृति की नहीं, जितनी ठेके वालों की है. उन के बिना अपना देश टस से मस नहीं हो सकता. देश के सारे काम मरने से ले कर जीने तक के ठेके पर ही चल रहे हैं. दूसरी ओर मरने वाले, जीने वाले दिनरात अपने हाथ मल रहे हैं. बातों ही बातों में उन्होंने अपनी व्यस्तता व्यक्त करते हुए मेरी जेब से मेरा रूमाल निकाल अपना पसीना पोंछते कहा, ‘‘यार, जब से देश को अस्वच्छ करने का काम चला है, सिर खुजाने तक का वक्त नहीं निकाल पा रहा हूं. पता नहीं यह देश कब अस्वच्छ होगा? होगा भी या नहीं?’’ वाह, चेहरे पर क्या गंभीर आवरण. काश, ऐसा आचरण हमारा भी होता.
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