मैंने आन्या के पापा को उसके पैदा होने के महीने भर बाद ही खो दिया था. हरीश जी हमारे पड़ोसी थे. वे विधुर थे और हम एक दूसरे के दुख-सुख में  बहुत काम आते  थे. हरीश जी से मेरा मन काफी मिलता था. एक बार हरीश जी ने लिव-इन-रिलेशनशिप का प्रस्ताव मेरे सामने रखा तो मैंने कहा,"यह मुमकिन  नहीं है. आपके और मेरे दोनों के बच्चों पर बुरा असर पड़ेगा. पति को तो खो ही चुकी हूं. अब किसी भी कीमत पर आन्या को नहीं खोना चाहती. हमदोनों एक दूसरे के दोस्त  हैं, यह काफी है." उसके बाद, फिर कभी उन्होंने यह बात नहीं उठाई.

समय का पहिया घूमता रहा और आन्या अपनी पढ़ाई पूरी करके नौकरी करने लगी. उसे बस से औफिस पहुंचने में करीब एक-सवा घंटा  लगता था. एक दिन अचानक आन्या  ने आकर मुझसे कहा, "मम्मी, मेरा औफिस बहुत दूर है. मैं बहुत थक जाती हूं. रास्ते मे समय भी काफी निकल जाता है. मैं औफिस के पास ही पी.जी. में रहना चाहती हूं..." एक बार तो उसका प्रस्ताव सुनकर मैं सकते में आ गयी, फिर मैंने सोचा कि एक ना एक दिन तो वह मुझसे दूर जायेगी ही, अकेले रह कर उसके अंदर आत्मविश्वास पैदा होगा और वह आत्मनिर्भर रह कर जीना सीखेगी, जो कि आज के जमाने में बहुत आवश्यक है. मैंने उससे कहा, “ठीक है बेटा, जैसे तुम्हें समझ में आये करो.”

तीन-चार महीने बाद उसने मुझे फोन करके अपने पास आने के लिए कहा तो मैं मान गयी और जब उसके दिए एड्रेस पर पहुंच कर कौल बेल बजाया तो दरवाजे पर एक सुदर्शन युवक को देख कर भौंचक रह गयी. इससे पहले मैं कुछ बोलूं, उसने कहा,” आइये आंटी, आन्या यहीं रहती है..” यह सुनकर मैं थोड़ी सामान्य होकर अंदर गयी. आन्या सोफे पर बैठ कर लैपटौप पर कुछ लिख रही थी, मुझे देखते ही वह  मुझसे लिपट गयी और मुस्कुराते हुए बोली, “मम्मी, यह तनय है, मैं इससे  प्यार करती हूं. इसी से मुझे शादी करनी है. पर अभी ससुराल, बच्चे, रीति-रिवाज किसी जिम्मेदारी के लिए हम मानसिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से परिपक्व नहीं हैं.

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