यह ठीक है कि व्यापारी और दुकानदार अंतत: घरों की सेवा करते हैं और उन्हें रोजमर्रा का सामान दिलाते हैं पर इस का मतलब यह नहीं कि इस चक्कर में वे अपने ग्राहकों की बस्तियों को ही उजाड़ दें. पेड़ छांव देते हैं पर जब घर की दीवारों में घुस कर घर को गिराने लगें तो उन्हें काटना ही होता है चाहे पेड़ कितने ही उपयोगी क्यों न हों.
दिल्ली एक उदाहरण बन रहा है कि शहरों का प्रबंध और शहरों के नियम दुकानदारों के इशारों पर हों या घरों के, सुप्रीम कोर्ट ने एक कमेटी नियुक्त कर रखी है जो घरों के इलाकों में घुस रहे दुकानदारों, दफ्तरों, रेस्तराओं और यहां तक कि डांस बारों पर रोक लगाने की कोशिश कर रही है. दुकानदारों की मजबूत लौबी जो पौलिटिकल पार्टियों को पैसा देती है, उन नियमों को बदलवाना चाहती है जिन के सहारे मौनीटरिंग कमेटी काम कर रही है.
ये नियम भी दिल्ली प्राधिकरण यानी डीडीए ने ही बना रखे हैं पर इन का उद्देश्य शुरू से किसी तरह हर जने को सरकारी अंगूठे के नीचे रखना रहा है. इस चक्कर में इन्होंने सरकारी अफसरों को अरबों बनाने के अवसर दे रखे हैं. वे कागज पर बनी घुंडी और लगी मुहर से पूरी बिल्डिंग को नियमित भी कर सकते हैं और ढहाने लायक भी घोषित कर सकते हैं.
अगर वे पैसा ले कर मंजूर कर दें तो नागरिकों के पास बहुत थोड़े अधिकार हैं कि दखलंदाजी कर सकें. सुप्रीम कोर्ट नागरिकों और घरों के लिए दिल्ली को बचाने की कोशिश कर रहा है पर यह फल नहीं दे पा रहा क्योंकि नौकरशाही दुकानदारों के साथ है.
नौकरशाही ने शहरी नियमों के लिए बने मास्टर प्लान में भारी हेरफेर कर के छूट दे दी है ताकि उन दुकानदारों को अभयदान मिल जाए, जिन्होंने घरों के बीच व्यवसाय शुरू कर रखे हैं. दिल्ली के 80% इलाके इस के शिकार हैं.
दिल्ली में बाजारों की कमी नहीं है. वहां आसानी से बहुमंजिला पार्किंग वाली बहुमंजिला दुकानें बनाई जा सकती हैं. लोगों को आज जरूरत से ज्यादा दुकानें मिल रही हैं, जो सुविधा नहीं क्योंकि दुकानदार अति मोटा मुनाफा वसूल कर अपना निकम्मापन छिपाते हैं.
दिल्ली के ज्यादातर दुकानदार घमंडी हैं और ग्राहकों को गुलामों की तरह समझते हैं. शौपिंग किसी भी तरह आनंद की बात नहीं है.
अगर सुप्रीम कोर्ट दिल्ली में सफल होता है तो ही देश भर के शहरों को संदेश मिलेगा. हमारी कमर्शियल राजधानी तो पहले ही पानी के सैलाब में डूबी है. दिल्ली दुकानदारों के सैलाब में डूब रही है.