धर्म और समाज के ठेकेदारों ने कुछ ऐसे बेतुके नियम बनाए हैं, जिसके बिनाह पर स्त्रियों को न जाने कब से उनके अधिकारों से वंचित रखा गया है. बनाने वाले ने तो स्त्री या पुरुष के पैदा होने की संभावनाएं भी ‘टॉस’ की तरह ही बनाई है, यानी की 50-50 बनाई है. पर नियम बनाने वालों ने पुरुषों को ज्यादा अधिकार देने में कोई कसर बाकी नहीं रखी.
स्त्रियों को हमेशा ही प्रताड़ित और शोषित किया गया. धर्म के नाम पर आडंबर और पाखंड की दुकानें खोलने वालों ने आस्था के नाम पर स्त्री को अपवित्र तक घोषित कर दिया. धर्म की दुकानों(मंदिर, मस्जिद, मजार आदि) पर तो रजस्वला स्त्रियों को अंदर जाने की मनाही है, पर कामाख्या मंदिर में ही देवी की योनि की पूजा करते हैं. यही नहीं चैत्र मास के पर्व के समय देवी के “उन दिनों” के तथाकथित रक्त जैसे द्रव्य को कपड़े में भिगोकर अपने साथ ले जाते हैं, इसे शुभ माना जाता है.
यह धर्म के नाम पर पाखंड नहीं तो और क्या है कि, एक तरफ एक स्त्री को “गंदा” और “मलिन” समझा जाता है, वहीं दूसरी तरफ एक स्त्री के ही “उन दिनों” के रक्त को संभाल कर रखा जाता है. यह अजीब हिपोक्रिसी है लोगों की, जब मन किया औरत का उपयोग किया और जब मन किया उसे प्रताड़ित किया या दुत्कार दिया.
पर ऐसा भी नहीं है कि कभी इन सब के खिलाफ आवाजें नहीं उठीं. समय गवाह है कि इस नाइंसाफी के खिलाफ स्त्रियों ने आवाज उठाई है. चाहे वो कलम से हो या तलवार से स्त्रियां इस हिपोक्रिसी के खिलाफ कई बार उठ खड़ी हुई हैं. सिमोन दे बोवा हो या वर्जीनिया वूल्फ सभी ने अपने स्तर पर आवाजें उठाई हैं. कुछ औरतों ने ऐसी जगहों का निर्माण किया जहां पुरुषों का जाना वर्जित है. कई क्लब और बार स्त्रियों की एंट्री पर भारी छूट भी देते हैं. भारत में कुछ ही दिनों पहले भूमाता ब्रिगेड की नारियों ने धर्म की दुकानों के खिलाफ आवाजें उठाईं और प्रताड़ित भी हुईं.
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