‘‘जमीर और जिंदगी के बीच किसे चुनेंगे?’’ के सवाल के साथ आतंकवाद पर तमाचा जड़ने वाली रोड ट्रिप प्रधान फिल्म ‘‘करीम मोहम्मद’’ में कश्मीर के हालातों को निष्पक्ष तरीके से पेश किया गया है. कश्मीर के अंदर आम जनता और आर्मी के बीच जो टकराव है, उसका भी सटीक चित्रण है. एक बालक के नजरिए से उठाए गए सवाल दर्शक को सोचने पर मजबूर करते है.

फिल्म की कहानी जम्मू और कश्मीर की पहाड़ियों पर घुमंतू/ खानाबदोश की जिंदगी जी रहे बकरवाल जाति के लोगों के इर्द गिर्द घूमती है. कहानी शुरू होती है बकरवाल होने पर गौरवान्वित महसूस करने वाले अशिक्षित हामिद (यशपाल शर्मा) से. जो कि अपने बेटे मोहम्मद (हर्षित राजावत) व पत्नी नाजनीन (अलका अमीन) के साथ दो घोड़ों पर अपना सामान बांधकर अपनी भेड़ बकरियों के साथ पहाड़ से नीचे उतर रहा है. क्योंकि ठंड शुरू हो गयी है और ठंड के बर्फीले मौसम में पहाड़ की उंचाईयों पर रहना संभव नहीं है.

हामिद पक्के देशभक्त होने के साथ इंसानियत में यकीन करते हैं. वह निडर हैं. सच के रास्ते पर चलते हैं. रास्ते में मोहम्मद एक नदी देखकर अपने पिता से एक दिन नदी के उस पार यानी कि पाकिस्तान की सीमा में जाने की बात करता है. तब हामिद उससे कहता है कि, ‘नदी के पार पड़ोसी मुल्क है. वहां जाना खतरे से खाली नहीं. इसलिए कभी मत जाना.’ इस पर बेटा मोहम्मद कहता है-‘हमारे यहां कोई पड़ोसी आता है, तो हम उसका स्वागत करते हैं.’ पिता कहता है कि, ‘बेटा तेरी समझ में नहीं आएगा. यह सरहद की लकीरों का मसला है.’’ और उसकी मां उसे डांटकर चुप करा देती है.

हामिद पूरे परिवार के साथ आगे बढ़ता है. रास्ते में मोहम्मद अपने पिता से सवाल करता रहता है और हामिद उसे उसके सवालों के जवाब देता रहता है. एक सवाल पर हामिद अपने बेटे से कहता है कि यह कुदरत ही सब कुछ सिखाती है. यह परिवार गुर्जर बाबा की मजार पर फूल चढ़ाता है और मोहम्मद के कहने पर हामिद, गुर्जर बाबा की बहादुरी की कहानी सुनाते हैं कि किस तरह अकेले ही चार आतंकवादियों को अकेले ही मौत के घट उतारते हुए खुद भी मारे गए थे.

रात्रि विश्राम के बाद परिवार लगातार आगे बढ़ता रहता है. बीच में मोहम्मद के एक सवाल के जवाब में हामिद कहता है कि आतंकवादी शैतान की औलाद हैं. अन्यथा अल्लाह हर इंसान को किसी न किसी मकसद से धरती पर भेजता है. पर यह आतंकवादी उन्हे अल्लाह द्वारा तय समय से पहले ही धरती से विदा कर देते हैं. इस बीच हामिद की पत्नी नाजनीन गर्भवती हो जाती है. तो वह एक जगह बने मकान में डेरा डाल देते हैं. एक दिन रात्रि में रिजवान (राजेश जैस) उस वक्त इस घर में बंदूक के साथ घुसता है, जब हामिद व मोहम्मद घर से बाहर थे. रिजवान बताता है कि वह शरीफ युवक है और कालेज में पढ़ता है. आतंकवादी जबरन उसे अपने डेरे पर उठा ले गए थे और उसे मारपीट कर गलत राह पर ले जाना चाहते थे पर किसी तरह वह भाग आया है.

हामिद, रिजवान को उसके माता पिता के पास पहुंचाता है. उसके बाद नाजनीन एक बेटी को जन्म देती है, जिसका नाम जूही रखा जाता है. अब हामिद पूरे परिवार के साथ अपनी बहन के घर की तरफ रवाना होता है. रास्ते में रात्रि में नदी से तीन आतंकवादी आते हैं, वह खुद को श्रीनगर निवासी और सिल्क के व्यापारी बताते हैं. हामिद उन पर यकीन कर लेता है. एक आतंकवादी के अंगूठे पर बह रहे खून को रोकने लिए नाजनीन पट्टी बांधती है. वह आतंकवादी उसे बहन बना लेते हैं. खाना भी खाते हैं. उसके बाद हामिद अपने परिवार के साथ बहन के घर पहुंचता है, जहां उनकी भांजी की शादी है. दिन में हामिद को महसूस होता है कि उसके जीजा ने कुछ आतंकवादियों को शरण दे रखी है. वह विरोध करता है. तो उसके जीजा उसे लेकर पूरे गांव वालों के पास जाते हैं.

गांव का सरपंच कहता है कि आतंकवादियों को शरण देने से उनका गांव आबाद है, उनके गांव पर आंच नहीं आती है. पर हामिद इसे गैरकानूनी बताता है. वह पुलिस को सूचना देने की बात करता है. एक युवक आतंकवादियों को खबर कर देता है. आतंकवादी गोलियां बरसाते हैं. जिसमें हामिद व नाजनीन मारे जाते हैं. मोहम्मद अपनी बुआ से कहता है कि वह हमेशा अपनेपिता हामिद की तरह जिंदगी की बजाय जमीर को चुनना चाहेगा. उसके बाद मोहम्मद, रिजवान के घर जाकर मदद मांगता है. रिजवान, मोहम्मद की बुआ को समझाता है और फिर पूरा गांव एक साथ इकट्ठा होकर आतंकवादियों के अड्डे पर हमला कर देते हैं.

आतंकवादियों को पुलिस की गिरफ्त मे देते हैं. मोहम्मद को उसकी वीरता के लिए पुरस्कृत किया जाता है. इस बीच गर्मी शुरू हो जाती है. फिर मोहम्मद अपनी बहन जूही को पीठ पर लादकर बकरवालों की तरह पहाड़ पर चढ़ना शुरू कर देता है.

कुछ कमियों के बावजूद फिल्म ‘‘करीम मोहम्मद’’ दर्शकों को सोचने पर मजबूर करती है. हामिद और मोहम्मद के इर्द गिर्द घूमती फिल्म इंटरवल से पहले धीमी गति से चलती है और शुष्क लगती है. पर इंटरवल के बाद फिल्म तेज गति से भागती है. तमाम घटनाक्रम तेजी से घटित होते हैं. मगर पटकथा के स्तर पर इंटरवल के बाद काफी कमियां हैं. यदि कहानी व पटकथा लेखक जीतेंद्र गुप्ता ने थोड़ी सी मेहनत की होती, तो यह एक बेहतरीन फिल्म बन सकती थी.

बतौर निर्देशक पवन कुमार शर्मा का प्रयास सराहनीय है. मगर वह भी वास्तविकता और आदर्शवाद के द्वंद में कुछ जगह उलझे हुए नजर आते हैं. फिल्म का अति आदर्शवादी अंत वर्तमान परिस्थितियों में फिल्म को वास्तविकता से दूर ले जाता है. पर वह अपनी फिल्म के माध्यम से आतंकवाद और हिंसात्मक राजनीति पर तमाचा जड़ते हुए सार्थक संदेश देने में सफल रहते हैं.

हामिद के किरदार में यशपाल शर्मा ने अपने सहज व स्वाभाविक अभिनय से जान फूंकी है. यशपाल शर्मा अपने बलबूते पर पूरी फिल्म को लेकर चलते हैं. मोहम्मद के किरदार में बाल कलाकार हर्षित बहुत ज्यादा उत्साहित नहीं करते. गीत संगीत ठीक ठाक है. लोकेषन नयनसुख देने वाली कमाल की है. फिल्म के कैमरामैन सुभ्रांष  कुमार दास बधाई के पात्र हैं.

एक घंटे 35 मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘‘करीम मोहम्मद’’ का निर्माण रवींद्र सिंह राजावत ने ‘‘अनहद स्टूडियो प्रा.लिमिटेड’’के बैनर तले किया है. फिल्म के लेखक जीतेंद्र गुप्ता, निर्देशक पवन कुमार शर्मा, कैमरामैन सुभ्रांष कुमार दास, संगीतकार बाल कृष्ण शर्मा और कलाकार हैं – हर्षित राजावत, यशपाल शर्मा, अलका अमीन, राजेश जैस, रवि जंगू, सुनील जोगी, जुही सिंह व अन्य.

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