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आज मुझे कहीं भीतर तक गुदगुदी हुई थी. वैसे तो बात झुंझलाने लायक थी परंतु मैं खुशी से विभोर हो उठी थी. मेरा सातवर्षीय बेटा रोहित धूलपसीने से सराबोर तूफानी गति से कमरे के भीतर आया. गंदे पैरों से साफसुथरी चादर बिछे पलंग पर 2-4 बार कूदा, फिर पलंग से ही उस कुरसी के हत्थे पर कूदा जिस पर मैं बैठी थी. हत्थे से वह मेरी गोद में लुढ़क गया और मचलमचल कर अपने धूलपसीने से मेरी साफसुथरी रेशमी साड़ी को सराबोर कर दिया. 2-4 मिनट मुझ से लिपटचिपट कर ममता की सुरक्षा से आश्वस्त हो, फ्रिज की ओर लंबी कूद लगाई. एक बोतल निकाल कर गटागट पानी पिया. फिर जिस गति से आया था उसी गति से वापस बाहर खेलने के लिए निकल गया.

रोहित की उस हुड़दंगी हरकत के बावजूद मैं खुश इसलिए हुई क्योंकि ऐसी हरकत ने उस का बचपना लौट आने का दृढ़ संकेत दिया था. मेरी यह बात शायद अटपटी या मूर्खतापूर्ण लगे क्योंकि किसी बच्चे का बचपना लौटने का भला क्या मतलब है? बच्चा है तो बचपना तो होगा ही.

बिलकुल ठीक बात है. रोहित में भी बचपना था. शुरू के 4 साल तक तो उस का बचपना ऐसा मोहक था कि सूरदास के श्याम का चित्रण भी मुझे फीका लगता था. एक बरफी के टुकड़े या टौफी के लिए ठुमकठुमक कर जब भी वह अपने मासूम करतब दिखाता तो बरबस ही रसखान की ‘छछिया भरि छाछ पे नाच नचावें’ वाली पंक्तियां याद आ जाती थीं. उस की संगीतमय, लयदार, तुतलाती बोली पर मैं यशोदा मैया की तरह बलिबलि जाती थी.

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