‘ना’ और ‘हां’ ये दोनों ऐसे शब्द हैं, जिन के प्रयोगमात्र से बिना किसी स्पष्टीकरण के मन की भावना को व्यक्त किया जा सकता है. लेकिन हमारे समाज ने भाषा को भी अपने सांचे में ढाल लिया है जैसे स्त्री की ना को हां ही माना जाता है. कहा जाता है कि लज्जावश स्त्री अपनी हां को हां नहीं कह पाती, इसलिए ना कहती है. दरअसल, उस ना का अर्थ हां ही है और जब स्त्री किसी बात का समर्थन कर हां कहती है, तो उसे अनेक उपनामों जैसे घमंडी, मौडर्न, बेहया आदि कहा जाता है. पर पुरुष की हां या ना को ले कर ऐसी कोई कहावत नहीं है. मतलब समाज में भाषा भी पितृसत्तात्मक संपत्ति है.

हिंदी सिनेमा कभी इस बात से अछूता नहीं रहा. सिनेमा, सीरियल, समाचार, विज्ञापन आदि हर जगह स्त्री आज या तो चमत्कारिक उत्तेजना को प्रस्तुत करती नजर आ रही है या फिर लाचारी. लेकिन जीवन न तो चमत्कार से चलता है और न ही लाचारी से. मध्यमार्ग को ले कर चलने वाली स्त्रियों का जीवन असल में स्त्री विमर्श की भारीभरकम परिभाषाओं के नीचे दब गया है.

स्त्री विमर्श के अंतर्गत कहा जाता है, ‘‘पूरा आसमान स्त्री का है. उसे सब अधिकार मिलने चाहिए. सैक्स से ले कर छोटे कपड़े पहनने तक का अधिकार.’’

कब्जा नहीं अधिकार

मगर पूरा आसमान कभी किसी का नहीं हो सकता. आसमान में उड़ने वाले परिंदों को भी जमीन पर उतरना ही पड़ता है. फिर स्त्री हो या पुरुष कैसे पूरे आसमान पर कब्जा कर सकते हैं? लेकिन यहां बात कब्जे की नहीं, बल्कि अधिकार की है. कम से कम आसमान में उड़ने की आजादी तो होनी ही चाहिए स्त्रियों को.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD48USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD100USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...