कुछ ही समय पहले क्रिकेटर मोहम्मद शमी और उन की पत्नी के साथ एक घटना घटित हुई. मोहम्मद शमी ने अपनी पत्नी हसीन के साथ अपनी कुछ तसवीरें सोशल मीडिया पर डालीं, तो उन पर कलह मच गई. हंगामें की वजह हसीन के कपड़े बताए गए, जो मजहब के मुताबिक न हो कर कुछ ज्यादा आधुनिक और खुले ठहराए गए. अचरज इस बात का था कि फोटो में दिख रहीं हसीन के कपड़ों में ऐसा कुछ भी नहीं था, जो उन्हें एक आम भारतीय महिला के परिधानों से अलग करता हो, लेकिन सोशल मीडिया पर मोहम्मद शमी के प्रशंसकों को भी उन की यह हरकत पसंद नहीं आई. इसलाम और अल्लाह का हवाला दे कर लिखा गया कि अपनी बीवी को कपड़े में रखो और कुछ सीखो अमला अली से और भी बहुत सारों से.

एक ट्विटरबाज ने तो यह नेक सवाल भी पूछ डाला कि आखिर आप को क्या हो गया, जो आलोचकों का जवाब देने के लिए रोज नंगी तसवीरें लगा रहे हो?

मोहम्मद शमी इस टीकाटिप्पणी से घबराए नहीं. उन्होंने जवाब में नए साल पर फेसबुक पर एक और तसवीर अपलोड की और आलोचकों को यह कहते हुए जवाब दिया कि वे अच्छी तरह जानते हैं कि क्या करना है और क्या नहीं. उन्हें अपने अंदर झांकना चाहिए कि वे कितने अच्छे हैं.

बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ, लेकिन उस के बाद उसे तमाम बंदिशों में रखो. मजहब, लोकलाज, परंपराओं के नाम पर बेटियों को हाशिए पर धकेलने का हमारा इतिहास रहा है, लेकिन 21वीं सदी में ऐसी सोच शर्मिंदा करती है. अफसोस है कि महिलाओं के कपड़ों पर जम कर टीकाटिप्पणी की जाती है.

दुनिया के कई आधुनिक देशों में भी कार्यस्थलों पर महिलाओं के पहनावे पर बहस हो रही है. हाल ही में ब्रिटेन की संसद ने उन कंपनियों पर जुर्माना लगाने की बात कही है, जिन्होंने महिलाओं के लिए ड्रैस कोड लागू किया है. वहां एक रिसैप्शनिस्ट की ऊंची एड़ी के  सैंडल पहन कर आने पर औफिस से घर भेज दिया गया था. इस ड्रैस कोड को अदालत में चुनौती दी गई तो लंदन की संसद ने कंपनी पर जुर्माना लगा दिया.

स्कूलों और दफ्तरों के ड्रैस कोड का फिर भी एक मतलब हो सकता है, पर शहरों से ले कर गांवों व कसबों तक में सामान्य महिलाओं के खानेपीने, बात करने, हंसीठहाके लगाने, पहननेओढ़ने से ले कर चालढाल आदि पर इतनी गाइडलाइंस हैं कि समझ में ही नहीं आता कि कब किस बात पर कौन नाराज हो जाए और क्या कर बैठे. कपड़ों में जरा सा भी फैशन नजर आएगा, तो वह छेड़छाड़ से ले कर रेप तक का आमंत्रण देते हुए माना जाता है. स्कूलों में ड्रैस तो जरूरी है, लेकिन अगर कोई लड़की गलती से लिपस्टिक लगा कर चली आई, तो कहा जाता है कि यह विशुद्ध रूप से नैतिकता भंग करने का मामला बनता है. दफ्तर में अगर उस ने भारतीय शैली की पोशाकें (साड़ी या सलवारकमीज) न पहन कर जींसटौप जैसी कोई ड्रैस पहन कर आने की कोशिश, तो यह अनुशासनहीनता मानी जाती है. और तो और विदेशी महिला पर्यटकों को भी साफ तौर पर ताकीद की जाती है कि उन्होंने स्कर्ट जैसी पोशाक पहन कर भारत भ्रमण की कोशिश की तो उन के साथ कुछ भी हो सकता है और तब शायद इस की कोई जिम्मेदारी भारत सरकार न ले सके.

पिछले वर्ष केंद्रीय संस्कृति और पर्यटन मंत्री महेश शर्मा विदेशी महिला पर्यटकों के लिए यह कह बैठे कि यदि वे इस देश में भ्रमण कर रही हैं, तो स्कर्ट जैसी पोशाक न पहनें. वजह निश्चित यही है कि मंत्री महोदय को देश की कानून व्यवस्था पर भरोसा नहीं है. ऐसे में वे पर्यटकों को ही दिशानिर्देश दे सकते हैं कि अपना तन जितना हो सके ढक कर रखें तो ही बेहतर, फिर चाहे आप किसी समुद्र तट पर ही क्यों न हों. इस विवाद पर हालांकि मंत्रीजी ने बाद में यह कह कर पल्ला झाड़ने की कोशिश की थी कि उन का आशय देश के धर्मस्थलों में प्रवेश के वक्त पहनी जानी वाली पोशाकों के संदर्भ में था.

पिछले साल ऐसा ही एक विवाद पटना स्थित एनआईटी में एक छात्रा को दुष्कर्म की नीयत से अगवा कर लेने के संबंध में पैदा हुआ. जब घटना की शिकायत की गई तो एनआईटी के निदेशक ने छात्राओं को सलाह दे डाली कि अगर वे इसी तरह शौर्ट्स पहनेंगी, तो ऐसी घटनाएं होंगी ही. पोशाकों की शालीनता से जुड़े ऐसे निर्देशों की हमारे देश में भरमार है.

कपड़ों पर सरकारी निर्देश: महिलाओं के पहनावे पर सरकारी विभाग भी निर्देश देने से पीछे नहीं रहे हैं. 2016 में हरियाणा सरकार ने सरकारी स्कूलों के शिक्षकों को जींस पहनने से परहेज बरतने को कहा था. इस के पीछे आशय यह था कि जींस का बच्चों और समाज पर अच्छा असर नहीं पड़ता है. जींस खराब असर क्यों डाल रही है, इस आदेश में यह स्पष्ट नहीं किया गया था पर साफ प्रतीत हो रहा था कि इस में सरकार को फैशन का पुट नजर आ रहा था और महिलाओं के संदर्भ में उन की जींस यौन आमंत्रण देते हुए प्रतीत हो रही थी.

हरियाणा में यह काम पहले भी हो चुका है. 2012 में हरियाणा के महिला और बाल विभाग ने एक सरकारी आदेश के तहत कर्मचारियों को शालीन कपड़े पहन कर दफ्तर आने का निर्देश जारी किया था. विभाग की तरफ से जारी सर्कुलर में भारतीय पोशाकों (साड़ी, सलवारकमीज) को शालीन कपड़ों की श्रेणी में रखा गया था और पश्चिमी पोशाकों टीशर्ट, टौप, जींस आदि को भड़काऊ परिधान कहा था.

वैसे ऐसे फरमान जारी करने वाला हरियाणा अकेला राज्य नहीं है. उसी वर्ष एक कोशिश तमिलनाडु के स्कूली शिक्षा विभाग ने की थी, जिस ने स्कूली शिक्षकों से कहा था कि वे ऐसे शालीन कपड़ों में आएं जो उन के पेशे और संस्कृति से मेल खाते हों. 2013 में कर्नाटक सरकार ने सरकारी विभागों में महिला कर्मचारियों के लिए जो ड्रैस कोड लागू किया था, उस के मुताबिक उन्हें ऐसे कपड़े पहनने के लिए कहा गया था जिन से पैरों से ले कर सिर तक पूरा शरीर ढक सके.

जब सरकार ही ऐसे निर्देश दे, तो पंचायतें भला पीछे कैसे रह सकती हैं. मार्च, 2014 में उत्तर प्रदेश के मथुरा के बरसाना में 52 गांवों की एक पंचायत ने महिलाओं के जींस पहनने पर पाबंदी लगा दी थी.

क्या पहनें महिलाएं: कपड़ों के संबंध में नसीहतें देते समय क्या इस बारे में सटीकता से बताया जा सकता है कि आखिर तमीजदार और मजहब के मुताबिक पोशाकें आखिर क्या हैं? हमारे देश में पुरुषों के लिए कुरतापाजामा और महिलाओं के लिए साड़ी को भारतीय पोशाक कहा और माना जाता है, पर कितने महिलापुरुष आज ऐसे हैं, जो घर से बाहर दौड़धूप करते और दफ्तर जाते वक्त ये पोशाकें धारण करते हैं? कामकाज के लिहाज से जो सहूलतें पुरुषों को पैंटशर्ट और महिलाओं को जींसटौप से आज के भारत में मिल रही हैं और जो कायदे से राष्ट्रीय पोशाकें कहलाने की हकदार बन चुकी हैं, वे भारतीय तो नहीं हैं, लेकिन हम ने उन्हें सहूलत के पैमाने पर अपनाया है.

ऐसे में उन फरमानों का कोई मतलब कहां रह जाता है जिन में यह बताया जाता है कि घर में शौहर के साथ तसवीर खिंचवाते वक्त कौन सी पोशाक पहनी जाए, जो तन को इतना ढकती हो, जिस से मजहब आहत न हो. हमारे देश में आम तौर पर जींसशौर्ट्स जैसे कपड़ों को महिलाओं के लिए एक वर्जित पोशाक बताया जाता रहा है. कुछ समय पहले बरसाना की पंचायत में कहा गया था कि ऐसी पोशाकें पहनी किशोरियां और युवा लड़कियां अपनी एक स्वच्छंद छवि पेश करती हैं और गांवों के बंद समाजों के पुरुष उन्हें ऐसी पोशाकों में देख कर यौन आमंत्रण समझ भड़क सकते हैं.

आज के शहरी और कसबाई समाज के निचले और मध्यवर्ग की कामकाजी महिलाओं की बात करें, तो उन के सामने जींसटौप जैसे सस्ते और सुविधाजनक विकल्प नहीं हैं. विचार किया जाना चाहिए कि पुरुषों से अलग आज की स्त्री को आखिर इस की क्या जरूरत पड़ी है कि वे सलवारकमीज और साड़ी जैसे अच्छेभले कपड़ों को छोड़ कर जींसटौप पहनने लगी हैं? इस सवाल का जवाब हमें शिक्षा और उन्नति की उस इच्छा की तरफ ले जाता है जिसे अब गांवदेहात की लड़कियां भी हासिल कर लेना चाहती हैं. स्कूली शिक्षा खत्म कर जब वे शहरों का रुख करती हैं, तो वक्त की चाल से कदम मिलाने और शहरी समाज की मानसिकता से तालमेल बैठाने के लिए सलवारकमीज या साड़ी जैसी भारतीय पोशाकें मिसफिट साबित होती हैं. साड़ी कुछ दफ्तरों में बेहद ऊंचे ओहदे अथवा सरकारी हवाई कंपनी की एअरहोस्टेस जैसे खास पेशों में काम करने वाली और हमेशा कार से चलने वाली महिलाओं की पोशाक तो जरूर हो सकती है, लेकिन बाकियों के लिए तो जींसटौप ही एक सुविधाजनक विकल्प बचता है.

असल में, पहनावे के मामले में कपड़ों की कीमत आज एक बड़ा कारक है. साड़ी या सलवारकमीज के मुकाबले लड़कियों के लिए जींसटौप बेहद सस्ता विकल्प साबित होता है. आमतौर पर जितने में एक साड़ी आती है, उतने में 2 जोड़ी जींसटौप का प्रबंध हो जाता है और उसी 2 जोड़ी पोशाक में किसी कायदे के प्रोफैशनल कोर्स की पढ़ाई का एकाध साल निकल जाता है. गांवदेहात के गरीब मांबाप ही नहीं, बल्कि शहरों के आम मध्यवर्गीय अभिभावक भी अपनी बेटियों को जींसटौप दिलाने की कोशिश करते हैं. एक जींस के साथ 4 टौप ले लिए, तो वही काफी होता है. उन की धुलाई और रखरखाव आदि का खर्चा भी सीमित है. हमें भूलना नहीं चाहिए कि जींस के इस अर्थशास्त्रीय पहलू पर गौर किए बिना जहां कहीं भी उस पर प्रतिबंध लगाए गए वे प्रतिबंध ज्यादा दिन टिक नहीं सके.

संस्कारी जींस: आश्चर्य की बात तो यह है कि यह स्वदेशी का जोरशोर से प्रचार करने वाली बाबा रामदेव की कंपनी (पतंजलि प्रोडक्ट्स) ने भी समझ लिया है कि भले ही जींस पश्चिमी देशों का सांस्कृतिक प्रतिनिधित्व करते हुए भारत आई है, पर वक्त और कामकाज की जरूरतों के मद्देनजर यह इतनी सुविधाजनक पोशाक साबित हुई कि यह भारत में रचबस गई है. यह भी कि फिलहाल इस का कोई दूसरा बेहतर विकल्प नहीं है. हालांकि उन की कंपनी स्टाइल, डिजाइन और कपड़े के मामले में जींस का देशी विकल्प पेश करेगी खासतौर से महिलाओं के संदर्भ में यह भारतीय संस्कृति और मर्यादाओं का खयाल रखते हुए ढीलीढाली होगी. जींस के कपड़े का नया विकल्प देना इस अर्थ में सराहनीय है कि इस में सिंथैटिक धागों के स्थान पर सूती धागों का प्रयोग किया जाएगा और विदेशी कंपनियों से देश को नजात दिलाने का एक और प्रयास इस के माध्यम से होगा. लेकिन यह बयान खटकने वाला है कि इस का डिजाइन भारतीय संस्कृति के अनुरूप ढीलाढाला होगा.

जींस के ऐसे महिलाकरण के पीछे का उद्देश्य बिलकुल स्पष्ट है. जिस तरह एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के नूडल्स में कुछ समस्या निकलने पर बाबा रामदेव की कंपनी अपने नूडल्स ले कर बाजार में उतर गई थी, उसी तरह विदेशी जींस के बाजार को देखते हुए वे उस का स्वदेशीकरण महिलाकरण करते हुए अपना व्यापारिक हित साध लेना चाहते हैं. खुले बाजार की अर्थव्यवस्था में यह उन का अधिकार है. इस से उन्हें वंचित नहीं किया जा सकता. लेकिन मूल सवाल ढीलीढाली और भारतीय संस्कारों वाली जींस का है. इस में भरपूर ऐतराज है. इसी बिंदु पर आ कर रामदेव की जींस उसी पुरुषवादी मानसिकता से ग्रस्त नजर आने लगती है, जिस में वह तन ढकने के सुविधाजनक विकल्प के बजाय पश्चिमी फैशनपरस्ती और देह दिखाऊभड़काऊ पोशाक में तबदील हो जाती है.

इस में कोई समस्या नहीं है कि डैनिम के कपड़े से बनने वाली जींस के सूती विकल्प पेश किए जाएं, लेकिन समस्या तब है जब उसे भारतीय संस्कारों के अनुरूप बनाने की पेशकश के तहत लाया जाए. ऐसी संस्कारी जींस की बात उठाते वक्त उन्हें एकसाथ भारतीय इतिहास और वर्तमान दोनों पर नजर दौड़ानी चाहिए. सौ साल पहले भारतीय महिलाओं की पोशाक इतनी बंदिशों वाली नहीं थी कि उन की सांस ही घुटने लगे. सलीके वाली धोतीचोली ग्रामीण और कसबाई समाज की महिलाओं की दिनचर्या में शामिल थीं, पर उस समय भी वे पाबंदियों वाले ड्रैसकोड के तहत नहीं अपनाई जाती थीं.

अगर जींस के इतिहास पर नजर दौड़ाई जाए तो 3 बातें पता चलती हैं- एक यह कि रफटफ होने के कारण यह मजदूर और कामकाजी तबके की पोशाक रही है और दूसरी यह कि फैक्टरियों से ले कर आम दिनचर्या में इसे इस की चुस्त फिटिंग के लिए पसंद किया गया है. मौजूदा भारतीय समाज में इस की स्वीकार्यता के पीछे भी यही अहम कारण हैं. लड़कियों ने जींस को अव्वल तो इस के सस्तेपन की वजह से अपनाया है और इसलिए भी कि सलवारकमीज और साड़ी के मुकाबले इस के रखरखाव में झंझट नहीं है. साथ ही, यह अन्य पोशाकों के मुकाबले ढीलीढाली नहीं होती है, बल्कि चुस्त फिटिंग के कारण इस के हिस्सों के कहीं उलझनेफंसने की समस्या भी नहीं रहती.

– मनीषा सिंह

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