टेलीफोन से रुकरुक कर आवाज आ रही थी, ‘‘दादी, मैं बड़ी मुश्किल में फंस गई हूं. पिछले सप्ताह स्कूटर से स्कूल जाते हुए गिरने से बहुत चोट लग गई...बाईं ओर गिरने से बाईं भुजा और टांग पर गहरी चोटें आई हैं...हाथ तो उठाया ही नहीं जा रहा... चेहरे के बाईं ओर सूजन अभी भी है... पूरा जबड़ा हिल गया है...सामने के 2 दांत भी टूट गए हैं...’’ कहतेकहते उस ने सिसकी भरी.
उस की पीड़ा से दुखी और टक्कर मारने वाले पर क्रोध से उफनते हुए मैं ने पूछा, ‘‘लेकिन यह किया किस ने?’’
उत्तर में कुछ देर लगी... झिझकते हुए वह बोली, ‘‘दादी, असल में गलती मेरी ही थी. किसी ने टक्कर नहीं मारी. मैं ही चक्कर आ जाने से गिर पड़ी क्योंकि उस दिन मेरा एकादशी का व्रत था.’’
पूरी बात सुनते ही मैं ने फोन रख कर दोनों हाथों से अपना सिर थाम लिया. मेरी आंखों में अपनी चचेरी बहन कुमुद की फूल जैसी नाजुक एवं सुंदर आकृति घूम गई. अभी 2 वर्ष पहले ही उस का विवाह एक सैन्य अधिकारी से हुआ था. पति अभीअभी प्रोमोट हो कर किसी नए स्थान पर गया था और नवविवाहिता पत्नी घायल हो कर बिस्तर पर पड़ गई थी.
किंतु इस के लिए दोषी कौन है? अपनी ही मूर्खता? मूर्खता का कारण है यह विश्वास कि एकादशी का व्रत करने में पति को लाभ होगा, गृहस्थी में समृद्धि बढ़ेगी, मोक्ष की प्राप्ति होगी आदि.
इसे क्या कहें? विश्वास या अंधविश्वास. विश्वास का आधार है, विवेक. विश्वास को बल देता है खुद का अनुभव.
जिस व्रत या अनुष्ठान के द्वारा शरीर को असहनीय कष्ट पहुंचे उसे केवल किसी के धार्मिक आदेश से मान लेना अंधविश्वास को बढ़ाना है जिस का परिणाम आनंद नहीं दुख ही होगा. इसे कोई भी धर्म स्वीकार नहीं करेगा. स्वयं ईश्वर...जो सच्चिदानंद कहलाता है, वह भी इसे उचित नहीं ठहराएगा. खुद कृष्ण ने ‘गीता’ में कहा है, ‘शरीरम् आद्यं खलु धर्म साधनम्’ अर्थात शरीर ही सब धर्म निभाने का साधन है. अत: इस की संभाल एवं सुरक्षा करनी चाहिए.
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