जेनेवा झील का सम्मोहन मुझे बार बार वहां ले जाता रहा है. लंदन से स्विट्जरलैंड जाना वैसे भी अब पहले से बहुत आसान होता जा रहा है. इस बार जब मैं वहां पहुंची तो होटल की परिचारिका ने आर्द्र और धुंधले मौसम के लिए दुख प्रकट करते हुए मुझे कमरे की चाबी थमाई, तो मैं ने कहा कि मौसम की परवा नहीं. ऐसा कहना मेरी विनम्रता ही नहीं थी, बल्कि जेनेवा पहुंचने पर ऐसा मौसम मुझे सचमुच ही भाता था.

दूसरे दिन आसमान साफ था. चमचमाते सूर्यप्रकाश में स्विट्जरलैंड की सब से बड़ी झील बेहद खूबसूरत और आकर्षक तो लगती ही है, लेकिन जब पर्वत शिखरों से उतरी धुंध झील पर कलाबाजी दिखाने लगती है और वायु, जल पर ‘कोड़ा’ चलाने लगती है, तब यह उच्छृंखल जगह ट्रैवल एजेंटों द्वारा पर्यटकों के लिए तैयार किए गए ब्रोशरों में दिखने वाले चित्रों से भी अधिक कुतूहलजनक हो उठती है.

अंगरेज कवि बायरन और शेली इस विशाल झील में अचानक आए तूफान में डूबते डूबते बचे थे और तभी इस के बारे में कई कविताएं लिखी थीं. मुझे अब आभास हुआ कि ऐसे अवसर क्यों उन्हें काव्यरचना के लिए प्रेरित करते थे.

मैं पहली बार लगभग 36 वर्षों पहले स्विट्जरलैंड घूमने गई थी और तभी यह विशाल झील देखी थी. तब से अब तक कई बार वहां गई हूं और मौसम चाहे जैसा भी हो, यह झील देख कर सम्मोहित हो उठती हूं, निष्पंद हो उठती हूं.

लगभग 9 मील चौड़ी और 45 मील लंबी यह झील पश्चिमी यूरोप की सब से बड़ी झील है. पर मात्र इस की विशालता ही इसे इतना जीवंत नहीं बनाती, बल्कि चारों ओर हरीभरी पहाड़ियों से घिरी हिमाच्छादित चोटियां इसे ऐसी मोहकता प्रदान करती हैं.

यही कारण है कि स्विट्जरलैंड के प्राकृतिक दृश्यों के सब से बड़े चित्रकार हाडलर द्वारा इस झील का चित्रांकन स्तब्ध कर देता है. लेकिन वे भी इस के झंझावात तथा रहस्यमय सौंदर्य का सही चित्रण नहीं ही कर पाए.

लेक जेनेवा सैलानियों, विशेषकर अंगरेजों की पसंदीदा सैरगाह रही है. 1816 में ब्रिटिश पत्रकारों से बचने के लिए लौर्ड बायरन वहां आए थे. उन दिनों कामातुर ख्यात लोगों की आलोचना करने से संबद्ध कोई कानून नहीं था. वहां उन के साथ परसी बिशी शेली अपनी पत्नी और बच्चों से छिप कर अपनी किशोरी प्रियतमा मेरी गाडविन के साथ आ पहुंचे थे.

इन दोनों कवियों ने लेक जेनेवा के संबंध में ऐसी कविताएं लिखीं कि वह जगह अंगरेजों की प्रिय सैरगाह बन गई. उन की कविताओं की पुस्तकें लिए अंगरेज वहां आ पहुंचते थे. वहीं पर मेरी शेली ने 1816 में अपना विख्यात उपन्यास ‘फ्रेंकेस्टाइन’ लिखा था. यह उपन्यास पढ़ने में जितना रोचक है उतनी ही भयावह उस पर बनी फिल्में हैं.

जब मैं पहली बार वहां गई थी, तब वहां रुकना बहुत खर्चीला नहीं था. इसी कारण तब वहां अंगरेज भी भरे रहते थे. पर अब स्विस फ्रैंक महंगा हो जाने के कारण वहां अंगरेजों की चहलपहल कम हो गई है, पर नवधनाढ्य रूसी यहां गरमी की पूरी छुट्टियां बिताते हैं. फिर भी वहां आने पर इस बात की संतुष्टि हुई कि सप्ताहांत के 2 दिन भी थोड़े में गुजारना कठिन नहीं था.

हम जब पहली बार पूरे सप्ताह के लिए स्विट्जरलैंड गए थे तब हम ने लंदन में ही स्विस टूरिस्ट औफिस से 180 पौंड में 4 दिनों का पास खरीद लिया था. इस पास से हम चाहे जितनी बार बस, ट्रेन, बोट तथा ट्राम द्वारा सभी जगह तो घूम ही सकते थे, वहां के अधिकांश संग्रहालयों में भी बिना टिकट जा सकते थे. सुननेपढ़ने में यह उतना सस्ता तो नहीं लगेगा, पर इस पास से हमें सचमुच काफी बचत हुई.

इस बार स्विट्जरलैंड पहुंचने पर हम सब से पहले मौंट्रेक्स में बहुत ऊंचाई पर बने होटल यूरोटेल में रुके. वहां चारसितारा होटल जैसी सारी सुविधाएं थीं और यह जेनेवा एयरपोर्ट से मात्र 1 घंटे की दूरी पर है. यहां से फेरी टर्मिनल पैदल ही कुछ मिनटों में पहुंचा जा सकता था. इस प्रकार झील के चारों ओर नौकाभ्रमण के लिए यह एक सही जगह थी.

लेक जेनेवा का सब से शानदार आकर्षण है वहां का नावों का तंत्र. कुछ नावें तो पहले की पैडल मार कर चलाने वाली स्टीमर हैं जिन का अपना ही आनंद है, पर आधुनिक स्टीमर भी कम आनंददायी नहीं हैं. पर्यटकों में तो ये लोकप्रिय हैं ही, स्थानीय लोग भी इन्हें पसंद करते हैं.

झील दर्शन के लिए ये बेहद अच्छा और सस्ता साधन है, साथ ही झील के आरपार जाने के लिए सुविधाजनक भी क्योंकि ये छोटेछोटे घनी झाडि़यों वाले 30 से भी अधिक बंदरगाहों पर रुकती हैं.

झील में और उस के आसपास घूमने के बाद हम ने जेनेवा जाना तय किया. लोगों की धारणा है कि जेनेवा एक बहुत ही बोरिंग व्यापारिक शहर है, पर ऐसा केवल उन लोगों के लिए हो सकता है जो केवल व्यापार के सिलसिले में किसी मीटिंग में यहां आते हैं, होटल में ठहरते हैं और मीटिंग के बाद लौट जाते हैं.

जेनेवा दरअसल एक विश्व स्तर का शहर है जिस का इतिहास बहुत समृद्घ और विविधतायुक्त रहा है. वहां अच्छेअच्छे संग्रहालय हैं जिन में एक कला संग्रहालय भी है जिस में हाडलर के बनाए स्विट्जरलैंड संबंधी चित्रों का अच्छा संग्रह है. इन चित्रों को देखना हमें अंतरतम तक भिगो गया. उस के बाद हम पुराने शहर में कलादीर्घाओं और एंटिक वस्तुओं का आनंद लेते रहे.

अगले दिन हम न्योन के लिए चल पड़े जो रोमनकाल में महानगर था. आजकल यह बाजारों वाला मध्यवर्गीय शहर है, क्योंकि पास ही में स्थित बड़े शहर जेनेवा की वजह से इसे छोटा माना जाना स्वाभाविक है. वहां हर तरफ रोमन खंडहर हैं जिन्हें देखना भी एक अलग तरह का अनुभव था. वहां एक भव्य पुरातात्विक संग्रहालय भी है जहां एक से बढ़ कर एक अजूबी चीजें देखने को मिलीं. वहां टूरिस्ट औफिस से मिले एक ब्रोशर से हमें शहर घूमने और वहां के दर्शनीय स्थलों तक पहुंचने में बड़ी आसानी हुई.

न्योन के बाद हम लुसाने पहुंचे. वहां तक तो झील बड़ी नहीं लगी थी पर लुसाने के रास्ते में जेनेवा झील का वृहत्तर रूप दिखने लगा. झील के किनारे बसा लुसाने शहर स्विट्जरलैंड का सब से जीवंत शहर कहा जा सकता है. वहां बाहरी विद्यार्थियों की संख्या अधिक है जिस से वहां खूब चहलपहल बनी रहती है. गरमी के दिन थे, इसलिए वहां की संकरी सड़कें लोगों से भरी पड़ी थीं. सारा वातावरण भूमध्यसागरीय लग रहा था.

ऊपर पहाड़ी पर अलंकृत गिरजाघर से स्तब्ध करते आल्पस पर्वत और लहराती हुई झील को देख कर जो अनुभव हुआ, उसे लेखनी द्वारा बता पाना मुश्किल है. कुछ दृश्य ऐसे होते हैं जिन्हें केवल महसूस किया जा सकता है, न तो लेखनी उन का सही वर्णन कर पाती है और न ही तूलिका द्वारा उन्हें चित्रों में उतारा जा सकता है. शायद, इसे देख कर ही विक्टर ह्यूगो ने लिखा था- ‘मैं ने झील को छतों पर देखा, पहाड़ को झील के ऊपर, बादलों को पहाड़ के ऊपर और तारों को बादलों के ऊपर’. काश, मैं इस से अच्छा लिख पाता.

वेवे पहुंच कर पहले तो लगा कि वह बड़ा ही नीरस शहर है, जहां बहुत ही कम दर्शनीय स्थल हैं, पर कुछ समय बिताने के बाद वह मेरा पसंदीदा शहर बन गया. उपन्यासकार ग्राहम ग्रीन ने अपना घर यहीं बसाया था और चार्ली चैपलिन ने भी शहर के किनारे स्थित महल जैसे घरों में से एक में अपना अंतिम समय बिताया था जिसे अब एक सुंदर संग्रहालय का रूप दे दिया गया है. हम उस ‘होटल डू लेक’ में केवल कौफी पीने गए जहां अनीता बु्रकनर ने अपना इसी नाम का बुकरपुरस्कृत उपन्यास लिखा था.

आश्चर्यजनक रूप से धीरगंभीर मगर लावण्य से भरपूर वेवे के बाद हमें मौंट्रेक्स बड़ा ही बेतुका, गड्डमड्ड, फीका और आधुनिकता का मुलम्मा चढ़ा शहर लगा. पर इन खामियों के बावजूद मौंट्रेक्स में उस के स्वर्णकाल के कुछ अवशेष बचे हुए हैं. रूसी उपन्यासकार नोबोकोव यहीं मौंट्रेक्स पैलेस होटल में रहते थे. होटल के बाहर कुरसी पर बैठी उन की एक भव्य प्रतिमा है जिसे इस प्रकार बनाया गया है जैसे वे तुरंत कुरसी से लुढ़क जाएंगे.

तटक्षेत्र से लगभग आधा घंटा पैदल चल कर हम शैटे द चिलौन से रूबरू हुए. कहा जाता है कि यही वह किला है जिस ने बायरन को उस की चर्चित कविता ‘द प्रिजनर औफ चिलौन’ लिखने को प्रेरित किया था. सोचती हूं कि काश, बायरन की थोड़ी सी भी साहित्यिक प्रतिभा मुझ में भी समा जाती. कई बार लेक जेनेवा जाने पर भी अभी तक तो यह इच्छा पूरी नहीं हुई है, पर अभी भी प्रतीक्षा है.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...