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वकील साहब का हंसताखेलता परिवार था. उन की पत्नी सीधीसाधी घरेलू महिला थी. वकील साहब दिलफेंक थे यह वे जानती थीं पर एक दिन सौतन ले आएंगे वह ऐसा सोचा भी नहीं था. उस दिन वे बहुत रोईं.

वकील साहब ने समझाया, ‘‘बेगम, तुम तो घर की रानी हो. इस बेचारी को एक कमरा दे दो, पड़ी रहेगी. तुम्हारे घर के काम में हाथ बटाएगी.’’

वे रोती रहीं, ‘‘मेरे होते तुम ने दूसरा निकाह क्यों किया?’’

वकील साहब बातों के धनी थे. फुसलाते हुए बोले, ‘‘बेगम, माफ कर दो. गलती हो गई. अब जो तुम कहोगी वही होगा. बस इस को घर में रहने दो.’’

बेगम का दिल कर रहा था कि अपने बच्चे लें और मायके चली जाएं. वकील साहब की सूरत कभी न देखें. पर मायके जाएं तो किस के भरोसे? पिता हैं नहीं, भाइयों पर मां ही बोझ है. उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि शादी के 14 साल बाद 40 साल की उम्र में वकील साहब यह गुल खिलाएंगे. बसाबसाया घर उजड़ गया.

वकील साहब ने नीचे अपने औफिस के बगल वाले कमरे में अपनी दूसरी बीवी का सामान रखवा दिया और ऊपर अपनी बड़ी बेगम के पास आ गए जैसे कुछ हुआ ही नहीं. बड़ी बेगम का दिल टूट गया. इतने जतन से पाईपाई बचा कर मकान बनवाया था. सोचा भी न था कि गृहस्थी किसी के साथ साझा करनी पड़ेगी.

दिन गुजरे, हफ्ते गुजरे. बड़ी बेगम रोधो कर चुप हो गईं. पहले वकील साहब एक दिन ऊपर खाना खाते और एक दिन नीचे. फिर धीरेधीरे ऊपर आना बंद हो गया. उन की नई बीवी में चाह इतनी बढ़ी कि वकालत पर ध्यान कम देने लगे. आमदनी घटने लगी और परिवार बढ़ने लगा. छोटी बेगम के हर साल एक बच्चा हो जाता. अत: खर्चा बड़ी बेगम को कम देने लगे.

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